________________ .P.P.AC.Gunratnasun MS. चाहता हूँ कि क्या आप की रानियाँ भी अन्य सामान्य नारियों के सदृश है अथवा नहीं ( अर्थात् आप जैसी उदारता उनमें विद्यमान है अथवा उसका अभाव है)?' महाराज श्रीकृष्ण की अनुमति ले कर नारद अन्तःपुर को ओर चले। उन्होंने विचार किया कि सर्वप्रथम महाराज श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा का दर्शन करना चाहिये। यह विचार कर नारद उसी के महल की ओर गये. उन्होंने दूर से ही सत्यभामा को देखा। वह महाराज श्रीकृष्ण के सिंहासन पर बैठ कर अपना श्रृङ्गार करने में व्यस्त थी। सामने दर्पण था, जिसमें वह अपनी अपूर्व रूपराशि को निहार रही थी। उसकी प्रसत्र आकृति यह दर्शा रही थी कि उसे भान होता है कि उसके रूप-लावण्य से प्रसन्न होकर महाराज श्रीकृष्ण उसे विशेष सम्मान प्रदान करेंगे। वह दर्पण देखने में ऐसी निमग्न थी कि उसे मालूम ही नहीं हुआ कि नारद मुनि का आगमन हुआ है। जब नारद उसके पीछे जा कर सहसा खड़े हो गये, तो उसने दर्पण में उनका प्रतिबिम्ब देखा / भस्म-लेपित देह एवं शीश पर जटाजूट होने से उनकी आकृति भयङ्कर प्रतीत हो रही थी। सत्यभामा ने तिरस्कार की दृष्टि से उस आकृति को देखा। उसने विचार किया कि मेरी सुन्दर मुखाकृत के समीप किसी विकृत पुरुष की विकराल छाया कैसी ? नारद को उसकी मनोदशा समझते विलम्ब न लगा। वे ताड़ गये कि सत्यभामा उनका तिरस्कार करती है। उनकी मुखाकृति क्रोध से तमतमा उठी। उन्होंने विचार किया कि जिसका बादर सारा संसार करता है, उसे सत्यभामा तिरस्कार की दृष्टि से देखती है। फलतः उन्हें बड़ी ग्लानि हुई अर्थात् सत्यभामा के महल में आने का बड़ा खेद हुआ। नारद ने सोचा- 'मैं ने यह उचित नहीं किया। जिसके स्वभाव का पता नहीं, उसके यहाँ सत्पुरुष नहीं जाते।' इस प्रकार विभिन्न प्रकार के संकल्प-विकल्प उनके मन में उठने लगे। वे इस घटना-चक्र का कारण सोचते हुए महाराज श्रीकृष्ण के अन्तःपुर से बाहर निकले एवं कैलाश पर्वत की ओर चल पड़े। नारद मुनि कैलाश पर बैठ कर चिन्तवन करने लगे। वे अशान्त तो थे ही। उनका हृदय बारम्बार कह रहा था कि मैं तो भक्ति का भूखा हूँ। जो मेरा आदर करता है, उसे मैं हृदय से मानता हूँ एवं जो मेरा तिरस्कार करता है, उस पर मैं क्रोधित हो जाता हूँ। ढाई द्वीप की समग्र भूमि मेरा विचरण स्थान है। वहाँ के अधिवासी मेरी वन्दना करते हैं। किन्तु सत्यभामा ने मेरा निरादर किया है, अवश्य ही उसका हृदय कलुषित Jun Gun Aaradhak Trust -