________________ P.P.Ad Gurrainasuri MS विपुल थी। इस प्रकार सप्त (सात) विभूतियों से युक्त राज्य का शासन करते हुए उन्होंने दीर्घकाल इस प्रकार व्यतीत किया कि निश्चित रूप से उस (समय बीतने) का मास तक नहीं हुआ। उनके राज्य में प्रजा निर्भय हो कर रहती थी। उनका राज्य प्रजा हित के लिए था। यद्यपि महाराज श्रीकृष्ण ने अपनी कुलभूमि (मथुरा) का परित्याग कर विदेश में राज्य-लक्ष्मी का उपभोग किया, फिर भी अपने धन-धान्य को ऐसो वृद्धि की, जैसे चन्द्रमा समुद्र को बढ़ा देता है / वस्तुतः इस संसार में पूर्व भव के पुण्य से सब कुछ होना सम्भव है। तृतीय सर्ग एक समय को घटना है / महाराज श्रीकृष्ण अपने बन्धुवर्ग के साथ राज-सभा में आसीन थे। उस समय देश तथा राज्य-सम्बन्धी वार्तालाप चल रहा था। अपनी विलक्षण प्रज्ञा से वे समस्त मित्र मण्डली को आनन्द प्रदान कर रहे थे। इसी समय माकाश-मार्ग से एक तेज-पुञ्ज आता दिखा। सभा में उपस्थित व्यक्ति आश्चर्यचकित हो गये—'यह तेज सूर्य का है या अग्निमय ? सूर्य का गमन टेढ़ा होता है एवं अग्नि की ज्वाला ऊपर की ओर, पर यह तो निम्नगामी है ?' इसलिये दर्शकों को महान आश्चर्य उत्पन्न हुआ। जब वह तेज-पु. नीचे उतरा, तो मनुष्य-सी आकृति प्रतीत हुई। निकट माने पर ज्ञात हुआ कि वह यथार्थ में मनुष्य ही है। वह थे नारद मुनि। उनके शीश पर जटा थी, कोपीन धारण किए हए थे एवं हाथ में कुशासन था। वे स्वभावत: कलह-प्रिय (झगड़ा करानेवाले), जिन-धर्म में लीन, स्वाभिमानी, निष्पाप, हास्य में आसक्त एवं जिन-वन्दना में सदा निरत थे। ___ नारद मुनि को अवलोक कर महाराज श्रीकृष्ण के साथ समस्त सभा अभ्यर्थना में खड़ी हो गयी। श्रीकृष्ण ने करबद्ध प्रणाम किया। उन्होंने मुनि के चरण पखारे, अर्घ प्रदान किया एवं तत्पश्चात् सिंहासन पर विराजमान कर भक्ति-भाव से स्तुति की अर्थात् अतिथि का समुचित सम्मान किया। ___महाराज श्रीकृष्ण ने कहा-'हे मुनिराज ! तप द्वारा माप विशुद्ध हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि आप के शुभागमन से मेरा घर पवित्र हुअा है। भाग्यहीन व्यक्ति को स्वप्न में भी यह सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। अतः निश्चित है कि मैं ने पूर्व भव में विशेष पुण्य संचित किया है। मुझे माशा है कि इस पुण्योदय से मेरे पूर्व Jun Gun Aaradhak Trust