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प्राचीन तिब्बत
अचम्भा होता था । वह जब जहाँ चाहे जा सकती थी, वह आसानी से पानी के ऊपर चलकर नदियों को पार कर जाती और दीवालों के भीतर होकर उस पार निकल सकती थी, हवा में उड़ सकती थी. आदि-आदि ।
किसी के मर जाने पर तो और तमाशा देखने में आता है। मरे हुए मनुष्य को उल्टे कपड़े - श्रागे का भाग पीछे पीठ की ओर करके - पहना दिये जाते हैं और उसके पैर छाती पर एक दूसरे के ऊपर मोड़ दिये जाते हैं। तब यह गट्ठर एक बड़े कड़ाह में डाल दिया जाता है जिसमें कभी-कभी वह पूरे एक हफ्ते तक पड़ा रहता है। इसी बीच में श्राद्ध के उपचार होते रहते हैं। इसके बाद जैसे ही कड़ाह खाली होता है, उसे थोड़ा सा धो-धाकर उसमें चाय तैयार होने को डाल दी जाती है। इसे श्राद्ध में सम्मिलित होनेवाले परिजन बिना किसी हिचक के पी जाते हैं ।
जहाँ कहीं आसानी से लकड़ी मिल सकती है, वहाँ मृत शरीर अन्यथा उसे जंगली जानवरों के लिए पहाड़ों
को जला देते हैं। पर छोड़ आते हैं।
बड़े-बड़े धार्मिक महान् आत्माओं के शव को यत्न- पूर्वक सुरक्षित रखने की भी परिपाटी है। इन्हें 'मरदोज्ड' कहते हैं। स्तूपों के आकार के चोटेंन में इन्हें बड़ी सजावट के साथ रख दिया जाता है, जहाँ ये अनन्त काल तक पड़े रहते हैं ।
बौद्ध धर्म में दानशीलता का बड़ा महत्त्व माना गया है। श्राद्ध-अवसरों पर लामा लोगों को ऐसे पुण्य कार्य्य में हाथ बँटाने का अच्छा मौका मिल जाता है। मरे हुए आदमी की यह इच्छा होती है, कम से कम माना ऐसा ही जाता है कि उसका शरीर ही उसके मरने के बाद उसका आखिरी दान हो - भूखे-प्यासे जीवधारियों की क्षुधा शान्त करने में उसका उपयोग हो ।
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