Book Title: Prachin Tibbat
Author(s): Ramkrushna Sinha
Publisher: Indian Press Ltd

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Page 160
________________ १६० प्राचीन तिब्बत कुछ दिनों के बाद यह फल भी प्राप्त हो गया । और कुछ और समय के बाद विदाम् शिष्य के साथ-साथ, जहाँ-जहाँ वह जाता था वहाँ-वहाँ, परछाई की भाँति पीछे-पीछे लगा रहता था । गुरु लामा प्रसन्नता के मारे फूले नहीं समाते थे । वे अपने योग्य शिष्य की पीठ ठोंककर कहने लगे- " बस, अब तुम्हारे सीखने योग्य मेरे पास कोई विद्या नहीं रह गई है। तुम्हें तुम्हारा प्राप्य प्राप्त हो गया है । तुम्हारे साथ-साथ मुझसे भी अधिक शक्तिशाली एक रक्षक लगा हुआ है।" कुछ शिष्य लामा को धन्यवाद देकर गर्वपूर्वक अपने स्थान को वापस लौटते हैं । परन्तु कुछ ऐसे भी निकल आते हैं जो काँपतेकाँपते अपने गुरु के चरणों में गिर पड़ते हैं और साफ़ शब्दों अपना अपराध स्वीकार करते हैं कि उनके मन में कोई संशय उत्पन्न हो गया है या उन्हें मानसिक अशान्ति सताती रही है। उनका यिदाम् उनके सामने प्रकट अवश्य हुआ था। उसके चरणों में उन्होंने अपना मस्तक नवाया था और देवता ने उनके सिर को स्पर्श करके अपने मुख से आशीर्वचन भी कहा था, लेकिन उन्हें न जाने क्यों ऐसा लगता था कि यह सब भ्रम मात्र है I न तो कहीं कोई विदाम् आया था और न कोई देवता उनसे बोला था । यह सब उनके अपने कल्पना - निर्मित चलचित्र मात्र थे । " बस-बस, यही तो सारी बात है। इसी को समझने की तुम्हें ज़रूरत थी । देवता, दानव और सम्पूर्ण सृष्टि और कुछ नहीं, दिमाग़ में रहनेवाली एक मृग मरीचिका है जो मस्तिष्क में अपने आप प्रकट होती है और अपने आप ही मस्तिष्क में अन्तहिंत हो जाती है।" ऐसे अवसरों पर गुरु लामा का प्रायः यही एक उत्तर होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, watumaragyanbhandar.com

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