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पुराने धर्म-गुरु और उनकी शिष्य-परम्परा नरोपा अपना कार्य बन्द करके शीघ्र ही तिलोपा की खोज में बङ्गाल की ओर चल दिया।
तान्त्रिक तिलोपा एक अवधूत था। अवधूत लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे न तो किसी वस्तु की इच्छा करते हैं और न अनिच्छा, उन्हें न किसी बात की शर्म होती है और न अपनी किसी चीज़ या अपने किसी कार्य पर गर्व। वे संसार के समस्त पदार्थों से उदासीन, कुटुम्ब, समाज और सब प्रकार के धार्मिक बन्धनों से मुक्त होकर स्वच्छन्द घूमते हैं।
जिस समय नरोपा तिलोपा के पास पहुँचा, वह एक बौद्धविहार के आँगन में नङ्ग-धडङ्ग बैठा हुआ मछलियाँ खा रहा था। मछली के काँटों को वहीं अपने पास बग़ल में जमा करता जाता था। एक मिन उधर से निकला। उसने बौद्ध-विहार के भीतर ही इस प्रकार जीव-हत्या करने के लिए बहुत बुरा-भला कहा और उसे तुरन्त विहार से बाहर चले जाने का निर्देश किया।
तिलोपा ने कुछ जवाब नहीं दिया। बस, उसने कुछ मन्त्र होठों में पढ़े और अपनी उँगलियाँ झटकार दी। फिर क्या था ? उसके बग़ल में पड़े हुए काँटे हिलने लगे और एक क्षण में सब की सब मछलियाँ ज्यों की त्यों रेंगने लगीं; फिर वे ऊपर हवा में उठी और कुछ समय के बाद न जाने कहाँ लोप हो गई।
नरोपा भौचक्का खड़ा रह गया। एकाएक उसे ध्यान आयातिलेपा! कहीं यह करामाती साधु तिलोपा ही ता नहीं था? उसने और लोगों से पूछताछ की तो मालूम हुआ कि हाँ, वही तिलोपा था जिसकी खोज में वह काश्मीर से पैदल चलकर इतनी कटि नाइयों के बाद बङ्गाल पहुंचा था। किन्तु अब क्या हो सकता था ? तिलोपा न जाने क्या हुआ ! हवा में मिला या धरती के भीतर समा गया। किसी को उसकी परछाई तक न
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