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पुराने धर्म-गुरु और उनकी शिष्य-परम्पग ९: मत ।" नरोपा अधिक नहीं सहन कर सकता। झपटकर उस
आदमी को पछाड़कर वह उसके सीने पर चढ़ बैठता है। पर यह क्या ! वहाँ उसके नीचे न तो वह आदमी है और न कहीं आसपास कोई स्त्री !! भूतलीला--और क्या ? एक परिचित स्वर फिर सुनाई पड़ता है, "वहाँ भी मैं था--मैं तिले!पा।" । ___ और इस तरह के भुलावे नरोपा को एक-दो नहीं, वासां. पचीसां दिये जाते हैं। हैरान होकर नरोपा पागलों की तरह तिलोपा का नाम ज़ोर-जोर से पुकारता हुआ वन-वन इंढ़ता फिरता है। वह रास्त में मिलनेवाले हर एक आदमी और जानवर के पैरों में गिर पड़ता है, पर तिलोपा का कहीं पता नहीं मिलता। वह जानता है कि उसका गुरु किसी वेश में मिल सकता है लेकिन वह यह नहीं जानता कि दृढ़े जाने पर वह कहाँ मिलेगा।
ऐसे बहुत से चकमों के बाद एक रोज़ आखिर शाम होते-होते नरोपा एक श्मशान में पहुँचता है। इस बार वह धोखा नहीं खाता, अपने गुरु को पहचान लेता है और उसके पैरों में गिरकर उसकी धूलि अपने मस्तक पर ले लेता है। और इस बार मायावी तिलोपा भी उसे छोड़कर नहीं जाता। ___इसके बाद कई वर्ष तक नरोपा तिलोपा के पीछे-पीछे लगा रहता है। जहाँ-जहाँ उसका गुरु जाता है वहाँ-वहाँ वह भी जाता है। परन्तु तिलोपा अभी उसकी कुछ परवा तक नहीं करता; कुछ सिखाना-पढ़ाना तो दूर रहा। हाँ, बारह बड़ी और बारह छोटो परीक्षाओं द्वारा नरोपा को अपनी गुरुभक्ति का परिचय अवश्य देना पड़ता है।
भारतीय प्रथा के अनुसार नरोपा अपने गुरु का भोजन कराने के लिए भिक्षा माँगकर ले आता है। नियम यह है कि गुरु के भोजन कर लेने पर उसी में से शिष्य भी अपने लिए कुछ प्रसाद
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