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पुराने धर्म-गुरु और उनकी शिष्य-परम्परा ९९ येशेज ग्यात्सा जब एक लामा गोमछेन के निकट शिष्य बनने के लिए प्रार्थी हुआ तो वह 'सुगम-मार्ग' के सिद्धान्तों से एकदम अपरिचित नहीं था। अपने जीवन के कई साल उसने निर्जन एकान्तवास में बिताये थे। उसने अपने आप अपनी कई शङ्काओं का निवारण कर लिया था। बस, केवल एक प्रश्न का उत्तर वह न पा सका था। मस्तिष्क क्या है ?-उसके लिए यही एक ऐसी प्रन्थिमयी माया थी, जिसको गुत्थी सुलझाने में वह असमर्थ था। उठते-बैठते, सोते-जागते वह इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहता किन्तु वह चपल वस्तु उससे उसी तरह दूर भाग जाती थी जैसे किसी छोटे बच्चे की मुट्ठी में से पानी, जो उसे अपने हाथ में बन्द करके रखना चाहता हो।
येशेज को अशान्त देखकर, उसके गुरु ने उसे अपनी जानपहचान के एक लामा गोमछेन के पास जाने की अनुमति दी। यात्रा बहुत लम्बी न थी। केवल तीन सप्ताह का सफर था, जो तिब्बतियों के विचारानुसार कुछ नहीं था। लेकिन रास्ता एक बड़े रेगिस्तान और अट्ठारह-अट्ठारह हजार फुट की ऊँचाई के पहाड़ों पर से होकर था। येशेज़ तैयार हो गया। जौ का थोड़ा सा आटा, मक्खन, चाय आदि सामान लेकर उसने अपनी गठरी बाँधी
और चल पड़ा। ___ मार्च का महीना था जब तिब्बत में खूब जोरों की बर्फ गिरती रहती है। येशेज ग्यात्सो को यह बाधा भी न रोक सकी। ___ एक रोज शाम को येशेज लामा गोमछेन के रितोद् के सामने जाकर खड़ा हुआ। उसका भेस देखकर शिष्यों ने जान लिया कि यात्री कहीं दूर से आ रहा है। उन्होंने उसे बैठाया। येशेज ने अपनी गठरी पीठ पर से उतारी और उसे ज़मोन पर रख दिया। रखते ही बोला- "लामा गोमछेन यदि भीतर
माशेज ग्यात्सो का यह मछेन के रिता के
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