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श्री प्राप्तकर यश लूटा और धर्मप्रभावना की दिगंबर जैनियोंके बड़े२ आचार्य इन्हीं राजवंशोंसे संबन्ध रखते थे। पूज्यपाद, समंतभद्र, अकलंक, वीरसेन, निनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र, सोमदेव, महावीर, इन्द्रनंदि, पुष्पदन्त आदि आचार्योने इन्हीं राजाओंकी छत्रछायामें अपने काव्योंकी रचना की थी और बौद्ध और हिंदू वादियोंका गर्व खर्व किया था। इसी समृद्धिकालमें जैनियोंके अनेक मंदिर गुफायें आदि निर्मापित हुई। इस प्रकार दशवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत और विशेष
कर बम्बई प्रांतमें जैनधर्म ही मुख्य बम्बई प्रांतमें जैनधर्मका ह्रास । धर्म था । पर दशवीं शताब्दिके
पश्चात जैनधर्मका ह्रास प्रारम्भ हो गया और शैव, वैष्णव धर्मोका प्रचार बढ़ा । एक एक करके जैन धर्मावलंबी राजा शैव होते गये। राष्ट्रकूट राजा जैनी थे और उनकी राजधानी मान्यखेटमें जैन कवियोंका खूब जमाव रहता था । ग्यारहवीं शताब्दिके प्रारम्भमें राष्ट्रकूट वंशका पतन होगया और उसके साथ जैन धर्मका जोर भी घट गया । इसका पुष्पदंत कविने अपने महापुराणमें बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है । यथादीनानाथधनं सदाबहुधनं प्रोस्फुल्लवल्लीवनं । ___मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् ॥ धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं ।
केदानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः ।। अर्थात्-नो मान्यखेटपुर दीन और अनाथोंका धन था,