Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ (17) मन्तव्य है कि प्रायश्चित्त न हो तो चारित्र की विशुद्धि नहीं रह पाती। इसलिए जितना महत्व चारित्र का है, उतना ही महत्व प्रायश्चित्त का है। छेदसूत्र प्रायश्चित्तविधि के संवाहक सूत्र हैं, अतः उनका महत्त्व स्वतः सिद्ध है तत्वार्थवार्तिक में प्रायश्चित्त की निष्पत्ति को आठ रूपों में प्रस्तुत किया गया है। २ । भाष्य साहित्य में सूत्र और अर्थ की बलवत्ता के विषय में विवेचन है। वहां प्रश्न किया गया-सूत्र और अर्थ में बलवान कौन ? भाष्यकार कहते हैं - सूत्र से अर्थ बलवान होता है । पूर्वगत में सभी सूत्र एवं अर्थों का विविध प्रकार से विवेचन है । अतः पूर्वगत सबसे बलवान है। छेदसूत्र और उसके अर्थों से चारित्र के अतिचारों की विशुद्धि होती है। अतः पूर्वगत के बाद शेष सभी अर्थों से छेदसूत्रों का अर्थ बलवान है। छेदसूत्रों की महत्ता इस तथ्य से भी जानी जा सकती है कि एक गच्छ के संचालन का अधिकारी वही हो सकता है, जो गीतार्थ है । गीत और अर्थ इन दो शब्दों से निष्पन्न 'गीतार्थ' का अर्थ है-छेदसूत्रों का ज्ञाता।' 'गीतार्थ' वह होता है जो छेदसूत्रों का जाता है। भाष्यसाहित्य में विहार के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं - १. गीतार्थ का विहार २. गीतार्थनिश्रित का विहार । इसका तात्पर्य है - एक अगीतार्थ मुनि स्वतंत्र विहरण का अधिकारी नहीं होता। वह गीतार्थ की निश्रा में ही विहार कर सकता है। गीतार्थ के तीन प्रकार हैं। १. जघन्य गीतार्थ - आचारप्रकल्प का धारक । २. मध्यम गीतार्थ-दशा, कल्प और व्यवहार का धारक । ३. उत्कृष्ट गीतार्थ - चतुर्दशपूर्वी । उक्त तीनों प्रकार के गीतार्थ की निश्रा में सबालवृद्ध गच्छ विहरण करता है।" गच्छ संचालक के लिए गीतार्थ (छेदसूत्रों का ज्ञाता) होना अत्यन्त आवश्यक है। गीतार्थ कालज्ञ और उपायज्ञ होता है। वह उत्सर्ग-अपवाद आदि विधियों को जानता है। वह जानता है कि किस कार्य में अधिक लाभ की संभावना है ? किस कार्य के पीछे कर्ता का प्रयोजन क्या है ? ग्लानत्व आदि आगाढ़ कारणों में प्रतिसेवना की औचित्य सीमा क्या है? वह परिणामक को तथा उसकी धृति, शक्ति आदि को जानता है। वह एषणीय द्रव्यों की ग्रहण संबंधी यतनाविधि को जानता है। कार्य और अकार्य की निष्पत्ति को जानता है तथा इनके प्रतिपक्ष को भी जानता है। इसलिए आचार्य आदि प्रधान पुरुषों के लिए गीतार्थ होना जरूरी माना गया है। यही कारण है कि प्राचीन आचार्यों ने पूर्वगत के बाद छेदसूत्रों के अर्थ को ही सबसे अधिक महत्त्व प्रदान किया है। छेदसूत्रों की वाचना : अर्ह अनर्ह छेदसूत्रों में श्रमणों के आचारविषयक विधि-निषेध का प्रज्ञापन है। छेदसूत्रों को रहस्यसूत्र भी कहा जाता है।' रहस्य को जानना जितना कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन है, उसे पचाना। इसीलिए छेदसूत्रों की वाचना उसी को दी जाती है, जो योग्य है। भाष्य-ग्रंथों में छेदसूत्रों के अध्ययन की योग्यता पर विमर्श किया गया है। भाष्यकार के अनुसार तेरह प्रकार के व्यक्तियों को छेदसूत्रों की वाचना नहीं देनी चाहिए।" १. निभा. गा. ६६७८ २. तवा. ९/२२ ३. व्यभा. गा. १८२९ जम्हा हु होति सोधी छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स । तम्हा छेदयत्थो बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ।। ४. बृभा. गा. ६८९ की वृत्ति २०७ .....' गीतं मुणितं वैकार्थम् । ततश्च विदितः मुणितः परिज्ञातोऽर्थः छेदसूत्रस्य येन तं विदितार्थं खलु वदन्ति गीतार्थम् । ५. वही, गा. ६८८ गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ । इत्तो तहविहारो नाणुनाओ जिणवरेहिं ॥ ६. वही, गा. ६९३ की वृत्ति पृ. २०८ आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा । तन्नीसाए विहारो, सबालवुड्डुस्स गच्छस्स ।। ७. ८. आचारप्रकल्पधराः निशीथाध्ययनधारिणो जघन्या गीतार्थाः, चतुर्दशपूर्विणः पुनरुत्कृष्टाः, तन्मध्यवर्तिनः कल्प-व्यवहारदशाश्रुतस्कन्धधरादयो मध्यमाः । तेषां .... निश्रया सबालवृद्धस्यापि गच्छस्य विहारो भवति, न पुनरगीतार्थस्य स्वच्छन्दमेकाकिविहारः कर्तुं युक्तः । वही, गा. ९५१ एवं उसकी वृत्ति पृ. ३०० (क) निभा. गा. ६२२७ की चूर्णि - 'पवयणरहस्सं अववादपदं सव्यं वा छेदतं । (ख) बृभा. गा. ६४९० एवं उसकी वृत्ति पृ. १७०६ ९. वही, गा. ७६२,७६३ तितिणिए चलचित्ते गाणंगणिए अ दुब्बलचरिते । आयरियपरिभासी वामावट्टे व पिणे व ।। आदी अदिभावे अकडसमापारी तरुणधम्मे य गव्विय-पइण्ण-निण्हइ छेअसुए वज्जए अत्थं ॥

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