Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(16) किया। भाष्य साहित्य में नि!हण के प्रयोजन का विस्तार से निरूपण है। व्यवहार भाष्य में उल्लेख है-नौवां पूर्व सागर की भांति विशाल है। उसकी निरन्तर स्मृति तभी संभव है जब उसका बार-बार परावर्तन किया जाए। परावर्तन के अभाव में वह ज्ञान विस्मृत हो जाता है। भद्रबाहु ने धृति, श्रद्धा आदि की क्षीणता देखी तो चारित्र की विशुद्धि एवं सुरक्षा के लिए भद्रबाहु ने दशा, कल्प और व्यवहार का निर्वृहण किया।
निर्वृहण का दूसरा प्रयोजन बताते हुए भाष्यकार कहते हैं-'चरणकरणानुयोग का व्यवच्छेद होने का अर्थ है-चारित्र का व्यवच्छेद। अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं चारित्र की सुरक्षा के उद्देश्य से भद्रबाहु ने इन ग्रंथों का नि!हण किया। भाष्यकार ने प्रसंगवश दृष्टान्त के द्वारा निर्गृहण के प्रयोजन को प्रस्तुति दी है।
जिस प्रकार सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर फूल पाने की इच्छा तो अनेक लोग रखते हैं पर वे सभी वृक्ष पर आरोहण करने में समर्थ नहीं होते। उन व्यक्तियों पर अनुकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस वृक्ष पर चढ़ता है और अक्षम लोगों में वे फूल वितरित कर देता है। उसी प्रकार भद्रबाहु स्वामी ने चतुर्दशपूर्व रूपी कल्पवृक्ष पर आरोहण किया और दूसरों पर अनुकम्पा कर छेदग्रंथों का नि!हण किया। छेदसूत्रों की संख्या एवं महत्ता
छेदसूत्र संख्या में कितने हैं? इस संदर्भ में भिन्न-भिन्न मन्तव्य प्राप्त होते हैं। आवश्यक नियुक्ति में छेदसूत्रों के साथ महाकल्प का उल्लेख है। जीतकल्प की चूर्णि में कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्प, महाकल्प, निशीथ और आदि शब्द से दशाश्रुतस्कन्ध इनका छेदसूत्र के रूप में उल्लेख है। सामाचारी शतक में छह छेदसूत्रों का उल्लेख है-१. दशाश्रुतस्कन्ध २. व्यवहार ३. बृहकल्प ४. निशीथ ५. महानिशीथ और ६. जीतकल्प।
इन छह ग्रंथों में से पांच का उल्लेख नंदी में कालिक सूत्रों के अंतर्गत किया गया है। जीतकल्प जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की रचना है। इसका प्रणयन नन्दी के उत्तरकाल में हुआ है। महानिशीथ की मूल प्रति वर्तमान में अनुपलब्ध है। हरिभद्रसूरि ने इसका विक्रम की आठवीं शताब्दी में पुनरुद्धार किया था, इसलिए इसे आगम की कोटि में नहीं रखा जा सकता। इस प्रकार वर्तमान में मौलिक छेदसूत्र चार ही रह जाते हैं।
जैन आगम वाङ्मय में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनुयोग के चार प्रकारों में प्रथम स्थान चरणकरणानुयोग का है। छेद सूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में है, इसलिए इनका आगम साहित्य में प्रथम स्थान है। इनमें श्रमणों की आचार-संहिता और अतिक्रमण होने पर स्वीकृत की जाने वाली प्रायश्चित्त संहिता का प्रज्ञापन है। प्रायश्चित्त से विशोधि होती है। प्रायश्चित्त प्राप्त करने के बाद व्यक्ति भविष्य में प्रमाद अथवा दोषाचरण से बचने का प्रयास करता है। आगम में प्रायश्चित्त के दस प्रकारों का उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि जब तक चतुर्दशपूर्वी थे, जब तक प्रथम संहनन था, प्रायश्चित्त के दसों ही प्रकार प्रचलित थे। स्थूलभद्र स्वामी के साथ ही पूर्वो का तथा अंतिम दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त का विच्छेद हो गया। वर्तमान में आठ प्रायश्चित्त ही प्रचलित हैं, जो तीर्थ पर्यन्त रहेंगे। भाष्यकार का १. दशानि. गा. ६ की चूर्णि
५. वही, गा. ४३-४६ ओसप्पिणी समणाणं परिहायंताण आयुबलेसु होहिंतुवग्गहकरा ६. आवनि. ७७७ पुष्वगतम्मि पहीणम्मि ओसप्पिणीए अणंतेहिं वण्णादिपज्जवेहि ७. जीचू. पृ.१ परिहायमाणीए समणाणं ओग्गहधारणा परिहायंति बलधिति
कप्प - ववहार -कप्पियाकप्पिय - चुल्लकप्य - महाकप्पसुयविरिउच्छाहसत्तसंघयणं च। सरीरबलविरियस्स अभावा पढिउं निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थरेण पच्छित्तं भणियं । सद्धा नत्थि संघयणाभावा उच्छाहो न भवति, अतो तेण भगवता ८. समा. (आगम अधिकार) पराणुकंपएण....मा वोच्छिज्जिस्संति एते सुत्तत्थपदा अतो ९. नंदी सू. ७८
अणुग्गहत्थं, ण आहारुवधिसेज्जादिकित्तिसद्दनिमित्तं वा निज्जूढा। से. किं तं कालियं? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा२. व्यभा. १७३८
१. उत्तरज्झयणाई २. दसाओ ३. कप्पो ४. ववहारो ५. निसीहं सागरसरिसं नवमं अतिसयनयभंगगुविलता।
६. महानिसीहं.....। ३. पंकभा. गा. २६-२९
१०. ठाणं १०/७३ ४. वही, गा. ४२
११. निभा. गा. ६६८०