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श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः
- गाथार्थ:--जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए नव (९) तत्वा (सत्यस्वरुपे) जाणवा योग्य छे..
विस्तरार्थ:-आ नवतत्त्व प्रकरणना प्रारंभमां प्रथम नवतत्त्वोनो संक्षिप्त अर्थ आप्रमाणे - ___व्यवहार नये ( स्थूळ दृष्टिए)'शुभाशुभ कर्मोनो कर्त्ता, हा अने भोक्ता ( एटले शुभाशुभ कर्मोंने विनाश करनार अने ते कर्मोंना शुभाशुभ फलोने भोगवनार ) ते जीव कहेवाय, अथवा दुःख सुखादि ज्ञानना उपयोगरुप ( अनुभवरुप ) चैतन्य लक्षणवाळोते जीव
कहेवाय, अथवा 'दश बाह्य प्राणो पैकी यथायोग्य प्राणोने धारण करे ते जीव 'कहेवाय, अने ए जीवन जे (लक्षण-भेदादि ) स्वरूप ते जीवतत्व कहेवाय. १ - जीवथी विपरीत लक्षणयुक्त एटले चैतन्यलक्षण रहित जे जड स्वभावी ते अजीव कहेवाय, अने ए अजीव जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते अजीवतत्व कहेवाय. २
१ पुण्यकर्म अने पापकर्मनो. २ यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च..
संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षण: अर्थ-जे कर्मभेदोनो करनार, कर्मफलनो भोगवनार, कर्मने अनुसारे एक गतिमाथी बीजी गतिमां जनार, अने कर्मनो अन्त करनार एज लक्षणवाळो आत्मा छे, परन्तु बीजा लक्षणवाळो नहि.
३ " चेतनालक्षणो जीवः” इति वचनात्। ४ ए दश बाह्य प्राणोनुं स्वरूप ७ मी गाथामां कहेवाशे.
५ “ जीवति-दशविधान प्राणान् धारयति इति जीवाः " इति वचनात्. संसारमा रहेला. जीवन ए उपर कहेलं लक्षण जा. णवू. सिद्ध भगवंतोमां तो ज्ञानादिस्वरूप भाव प्राणो होवाथी जीवपणुं कहेलुं छे