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॥निर्जरातत्त्वे तपास्वरूपम् ॥ (२६९) तेथी थयेलं अक्रियपणु हवे ( अप्रतिपाति एटले ) सदाकाळ रहेवार्नु छ माटे ए चोथा भेदतुं नाम व्युपरतक्रियाप्रतिपाति छ, ___एमां आर्त ने रौद्रध्यान अशुभ छे माटे अहिं निर्जरा प्रकरणमां तेनो उपयोग नथी तोपण प्रसंगथी दर्शावेल छ ने ते बन्ने अशुभपान ५ मा गुणस्थान सुधी ( मतान्तरे ६ वा सुधी ) कहेल छे अने धर्मध्यान अप्रमत्त मुनिने कहेल छे, अने वधुमां वधु १२ मो गुणस्थान सुधी पण ( तत्वार्थमां ) कहेल छे, पुनःतत्त्वार्थमां प्रथमनां बे शुक्लध्यान पण ११-१२ ए बे गुणस्थाने कहेल छे वळी ए वे ध्यान पूर्वधरनेज. होय छे, छतां पण मरुदेवादिवत् को इ जीवने पूर्व विना पण होय. तथा त्रीजुं शुक्ल ध्यान मात्र सू० काययोगे वर्तता सयोगीकेवलिने योगनिरोधकाळे होय, अने चोधु शु० ध्यान अयोगिगुणस्थानेज (-शैलेशी अवस्थामांज होय,)
उत्सर्ग-शरीरादिनो उत्सर्ग-त्याग ते कायोत्सर्ग कहेवाय ते द्रव्यथी अने भावथी एम बे प्रकारनो छे, तेमां पण द्रव्योत्सर्ग चार प्रकारनो अने भावोत्सर्ग ३ प्रकारनो छे ते आ प्रमाणे
१ गच्छनो त्याग करी जिनकल्पादि कल्प अंगीकार करवो ते गणोत्सर्ग
२ अणसणादि व्रत लइ शरीरचेष्टानो-कायक्रियानो त्या- . ग करवो ते कायोत्सर्ग ..' ३ कल्पविशेष वडे ( अन्यकल्प अंगीकार करतां सर्वज्ञनी आ
१ घणा ग्रन्थोमां उपशान्त क्षीणकषाययोः वाक्य छे प. ण तेनो अर्थ "उपशम श्रेणिधंत अने क्षपक श्रेणिवन्तने" एवो करवो. एम विचारसारमां का छे. - २ १३ मे गुणस्थाने पण शुक्लध्याननो बीजो भेद निर्वि. कल्पदशाए संभवे छे.