Book Title: Navtattva Vistararth
Author(s): Jain Granth Prakashak Sabha
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 377
________________ ॥ श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ संस्कृतानुवादः सर्वाणि जिनेश्वरभाषितानि वचनानि ब्रान्यथा भवंति । एतद्बुद्धीर्यस्य मनसि, सम्यकूत्वं निश्चलं तस्य ॥ ५२ ॥ शब्दार्थ: (३२०) सव्वाइ- सर्वे जिणेसर - जिनेश्वरना भासियाई -- कहेलां वयणाइ -- वचनो ननहि इअ-- (इह--इइ] एवी (अहि-एवी) बुध्धी - बुध्धि जस्स--जेमा मणे-मनमां सम्मतं सम्यक्त्व अन्नहा -- अन्यथा - असत्य निच्चलं-- निश्चल--दृढ हुति - होय छे तस्स--तेनं गाथार्थः - श्री जिनेश्वरनां कहेला सर्वे वचनो असत्य न होय (--एक पण वचन असत्य न होय ] एवी बुद्धि जेना मनमां होय तेने निवल- दृढ सभ्यक्त्व छे, विस्तरार्थः - जिनेश्वरे कहेलां सर्व वचनो अन्यथा असत्य न होय, कारणके असत्य भाषण ७ कारणथी होय छे, ते आप्रमाणे जीव ज्यारे क्रोधना आवेशमां आवी जाय छे त्यारे जेम मरजीमां आवे तेम सत्यासत्यनो विचार कर्या विना बोले छे, माटे असत्य भाषणमां क्रोध ए कारण छे जीवने ज्यारे अभिमान थाय छे, त्यारे पोतानी श्रेष्ठता दर्शा - १ ए शब्दस्थाने श्री नवतत्व वृत्तिमां मूळपाठमा इह छे. ने वृत्तिमां इति शब्द होवाथी मूळपाठमां इइ जोइए एम अनुमान थाय छे, ने विशेषतः इअ वा इइ नोज पाठ सार्थक समजाय छे, १ शास्त्रमां क्रोध-लोभ- भय ने हास्य ए ४ कारण दर्शा - of छे परन्तु अहि विशेष बोधने माटे में ८ कारण दर्शाव्यां छे, माटे aiena शास्त्रमर्यादानो लोप कर्यो एम नं विचारखं.

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