Book Title: Navtattva Vistararth
Author(s): Jain Granth Prakashak Sabha
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 385
________________ (३२८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ॥ शब्दार्थः ।। जिण-जिनसिध्ध अजिण-अजिनसिद्ध तित्थ-तीर्थसिद्ध अनित्य-अतीसिद्ध गिहि-गृहस्थलिंग सिद्ध अन्न-अन्यलिंग सिध सलिंग-स्वलिंग सिध्ध थी-स्त्रीलिंग सिध्ध नर-पुरुषलिंग सिध्ध नपुंसा-नपुंसक लिंग सिध्ध पत्तेय-प्रत्येक बुध्धसिध | सयंबुध्धा स्वयंबुध्धसिध्ध । बुधबोहिय-बुध्धबोधित सिध्ध सिध्ध एक सिध्ध ऽणिक-अनेक सिध्ध | य-वळी अने गाथार्थ:-जिनसिड, अजिनसिद्ध, तीर्थसिद्ध, अतीर्थसि' द्ध, गृहस्थलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, स्वलिगसिड, स्त्रीलिंगसिड. पुरुषलिंगसिद्ध, नपुंसकलिंगसिह, प्रत्येकवुदसिड, स्वयंबुद्ध. सिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध, एकसिद्ध, ने अनेकसिद्ध (ए प्रमाणे सिडना १५ भेद छे.) __ विस्तरार्थः-हवे १. भेदे सिद्ध थाय ते १५ भेदतुं स्वरुप दर्शावाय छे. १ जिन- तीर्थंकर पदवी प्राप्त करीने जे जीवो मोक्षे गया ते जिनसिद्ध. २ तीर्थंकर पदवी प्राप्त कर्या विना जे जीवो मोक्षे गया ते अजिन सिड. ३तीर्थ-संपनी स्थापना थया बाद जे जीवो मोक्षे गया ते तीर्थसिद्ध. १ कहेवाता सर्व भेद सिद्ध अवस्थाना समयने आश्रयि नहि पण पूर्वभवावस्थाश्रयी जाणवा.

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