Book Title: Navtattva Vistararth
Author(s): Jain Granth Prakashak Sabha
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 395
________________ [३३८) ॥श्री नवतस्वविस्तरार्थः ॥ ( तापस ) अन्यलिंगे सिद्ध, सर्व साधुओ [ जैन मुनिओ) स्वलिंगसिद्ध, अने चन्दनबाळा वगेरे स्त्रीलिंगे सिद्ध कहेवाय, विस्तरार्थः-गृहस्थवेषे सिध्ध ते श्रीऋषभदेवना पुत्र भ. रतचक्रवर्ति वगेरे जाणवा, कारणके श्रीभरतचक्रवर्ति सर्व शणगार सहित थइ आरिसा भुवनमां बेठा हता ते वखते आंगळीमांथी वीटी पडी जतां ते आंगळी आरिसानी अंदर बीजा अंगनी अपेक्षाए शोभा रहित बेडोळ देखावा लागी, त्यारै लघुकर्मीपणाने लइने एवी भावना प्रगटी के अहो आ अंग परवस्तुवडे करीनेज शोभीतुं छे इत्यादि भावना वृद्धि पामतां केवळज्ञान प्राप्त थयुं, ने त्यारबाद कंइक मुदत सुधी विहार करी मोक्षे गया, ___ तथा प्रसन्नचंद्र राजर्षिना भाइ वल्कलचीरी पोताना तापसपितानी पासे वनमा रहेता हता ने वल्कल एटले झाडनी छालनुं चीर एटले वस्त्र पहेरता, माटे वल्कलचीरी नाम पडयुं हतुं, ते वल्कलचीरी एक दिवस पोताना तापस पितानी तुंबडी वगेरे उपकरण देखीने चितववा लाग्या के-आq पात्र में कोइ वखत पहेलां पण देख्यु छे, एम चिंतवतां चिंतवतां जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं ने तेथी पोते पूर्वभवमां जैन मुनिवेषे चारित्र पाल्यानु वृत्तान्त विचारतां भावना भावतां केवलज्ञान पाम्या ने त्यारबाद मोक्षे गया, तेमज श्री गौतमस्वामिए अष्टापद पर १५०० तापसोने अक्षीणमहानसी लब्धिथी क्षीर जमाडी उपदेश आपतां ते सर्वे केवळज्ञान पाम्या हता तेओ पण अन्यलिंगसिद्ध ज कहेवाय. ___तथा सर्व सर्वज्ञोक्त साधुवेपने अङ्गीकार करी जेओ मोक्षे गया ते स्वलिंगसिद्ध कहेवाय.

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