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(२७२) ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥ आपशे १ ते प्रकृतिबन्ध कहेवाय. जेमके ज्ञानावरण कर्म आत्माना ज्ञानगुणर्नु आच्छादन करे, वेदनीयकर्म आत्माने सुखदुःख उपजावे, मोहनीयकर्म आत्माने विवेकथी भूलोवे इत्यादि जे कर्मनो जे स्वभाव ते प्रकृतिबन्ध एटले कर्मनो स्वभाव कहेलो छे. ते दरेक कर्मना स्वभाव आगळ गाथाथीन कहेवाशे,
तथा स्थिति एटले काळर्नु अवधारण-एटले निश्चय कहेल छ अर्थात् कयुं कर्म आत्मानी साथे केटलो काळ रही शके ? एवा प्रकारनो जे नियम ते काळ४ अवधारण कहेवाय. ते पण आगळ गाथाथीज कहेवाशे,
तथा अनुभाग एटले कर्मना शुभाशुभ फळनी तीव्रता अथवा मन्दता ते रस कहेवाय छे, जेमके कोइने कोइ कर्म सुखरूपे वेदाय छे, अने कोइ कर्म दुःखरूपे वेदाय छे, अने ते पण कोइने अत्यन्त तीव्र सुख के दुःखरूपे वेदाय छे, अने काइने अतिमन्द मु. ख के दुःखरूपे वैदाय छे, जेम कोइक जीवे पूर्वं ज्वरसंबन्धि अशाता वेदनीय कर्म एवा प्रकारचें बांध्यु छे के जे आ भवे तावरूपे उदय आवतां त्रण दिवसना तावमां शरीर एकदम नहिं उठी शकाय तेवू अशक्त बनावी देछे, अने कोइकने महिनाना महिना मुधी ताव शरीरमां रहे छे तोपण तेने खबर सरखी पण पडती नथी तेनु कारण ए छे के प्हेला जीव अशाता वेदनीयकर्म तथा प्रकारना तीव्र परिणाम वडे तोत्र रसवाळु बांधेलं छे, अने बीजा जीवे तेवा प्रकारना रसवालु नहिं बांधतां मन्द रसवाळु बांधेलु छे, एवा प्रकारनी कर्मवन्धमां शुभाशुभ उदय आववाना नियम पू. वक उदय काळे जे तीन अनुभव अथवा मन्द अनुभवनो नियम कर्म बन्धाती वखते निर्णित थयेलो होय छे ते अनुभाग अर्थ: वा रस कहेवाय,