Book Title: Navtattva Vistararth
Author(s): Jain Granth Prakashak Sabha
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
View full book text
________________
[३१६)
॥श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥
अवतरण-आ गाथामां नवतत्वने जाणवाथी शुं लाभ थाय
॥ मूळ गाथा ५१ मी॥ जीवाइनव पयत्थे, जो जाणइ तस्स हाइ सम्मत्तं । भावेण सदहतो, अयाणमाणेऽवि सम्मत्तं ॥५१॥
. संस्कृतानुवादःजीवादिनवपदार्थान् यो जानाति तस्य भवति सम्यक्त्वं । भावेन श्रद्दधतो, अज्ञानवत्यपि सम्यक्त्वं ॥५१॥
शब्दार्थः जीवाइ-जीव वगेरे सम्मत्तं-सम्यकूत्व नव-नव (९) . भावेण-भाववडे-भावथी पयत्थे-पदार्थोंने (तत्वोने) सद्दहन्तो-श्रडा करता जो-जे जीव
अयाणमाणे-अज्ञानीने जाणइ-जाणे
अवि-पण तस्स-तेने
सम्मत्तं-सम्यक्त्व होइ-होय-थाय __ गाथार्थः-जे जीव जीवादि नव पदार्थ (-तत्व ) ने जा. णे तेने सम्यक्त्व होय छे, अथवा भावथी ( नवतत्वनी ) श्रद्धा करनार ( नवतत्वने सत्य माननार ) एवा अज्ञानी जीवने (-न वतत्व नहि जाणनारने ) पणः सम्यक्त्व होय छे.
विस्तरार्थः-जीव-अजीव-पुन्य-पाप-आश्रव-संवर-निजरा-अने मोक्ष ए जीवादी नव पदार्थने जे कोइ जाणे तेने समकित होय छे.
Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426