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॥ जीवतत्त्वे पर्याप्तस्वरूपवर्णनम् ॥
(५७)
पर्याप्त समाप्त थइ एवो व्यपदेश थाय.
शंका - आहार पर्याप्तिना अर्थभां " जे शक्ति वडे आहत पुगलो खलरस पणे परिणमे ते आहार पर्याप्ति" एमां खलरस परिणमन ते शुं ? कारणके मलादि रूप विशिष्ट खल तो शरीर पर्याप्तने लोमहारथी पण न संभवे तो ते वखतना ओजस आहारथी केम होय ? वळी जेमांथी हाड विगेरे बने छे ते रस तो मात्र औदारिक शरीरी सजीवो ने ज होइ शके छे तो दरेक जीवमां ए आहार पर्याप्तिनो अर्थ केवी रीते जाणवो ?
उत्तर -- ग्रहण करेलां पुद्गलोमांथी जे योग्य पुद्गलो छे तेने शरीरादि रूपे रचवा, अने अयोग्य पुद्गलोने अलग करवा ते खल रस परिणमन कहेवाय. मात्र मळ प्रमुखने न खल अने हाड विगेरे मां बनी शके ते रस एवो एकान्त अर्थ नथी. ए अर्थ तो मुख्यवेस जीवनी औदारिक शरीर संबन्धी पर्याप्तिओ आश्रयी कलाहाने अंगे जाणवो.
शंका- शरीरपर्याप्ति रचाया बाद जे शरीरनिष्पत्ति कहेवाय ते कया सामर्थ्यथी ?
उत्तर -- भवधारणीय काययोगनी प्रवृत्तिथी अने ते काययोग वढे शरीरद्वारा लोमाहार ग्रहण करवाथी नवा शरीरनी froft eat मांडे. अहिं शरीरपर्याप्ति समाप्त थया बाद भवधारणीय काययोग 'श्री शीलांकाचार्यै' मानेलो छे. अने 'पंचसंग्रहमां' अन्य आचार्यना अभिप्रायथी शरीरपर्याप्ति बाद भवधारणीय काययोग मान्यो छे अने 'कर्मग्रंथादिकमां' तो पर्याप्तने ज भवधारणीय काययोग मान्यो छे. ॥ इति षष्ठ गाथा विस्तरार्थः ॥
अवतरण - पूर्व गाथामां कया जीवने केटली पर्याप्तिओ होय ते कहीने हवे आ गाथामां पूर्वोक्त पर्याप्तिओथी थनारा भा