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. उत्तर-प्रथम समये ( आत्मामां प्रथमथी रहेली) शक्तिवडे
पुद्गल ग्रहण कयो एम कहेवाय. .. शंका-जो एम होय तो पर्याप्ति के जे पुद्गलना आलंबनवडे कहेवाय छे ते न बनी शके !
उत्तर-ए वात सत्य छे, परन्तु (प्रथम समयनी) ग्रहणशक्ति तो तैजसकार्मणदेहना आलंबनथी जीवमां प्रथमथीज हती, परन्तु ते शक्ति उत्पत्ति स्थाने जीव आव्यो नहोतो त्यां सुधी कार्य करनारी न हती, अने हवे उत्पत्तिस्थाने (ग्रहण करवा योग्य पुद्गलोना स्थानमां) आववाथी ते शक्ति स्वकार्य करनारी थइ ए हेतुथीज प्रथम समये आहारग्रहण शक्ति प्राप्त थइ गणाय. ए प्रमाणे शरीरादि रचनानी शक्ति अने शरीर रचनानी शरुआत पण जीव मां प्रथम समयथीज छे, परन्तु ते शरीर विगेरे ज्यां सुधीस्वकार्य सामर्थ्य पूरतुं न रचाय त्यां सुधी शरीरादिक वडे जीव अपर्याप्तअशक्त गणाय, अने शरीरादि स्वकार्य सामर्थ्य जेटलुं रचाइ रहे त्यारे शरीरपर्याप्त (शरीरोपष्टंभ द्वारा उत्पन्न थयेली जीवशक्तिवाळो) गणाय. शरीर जो के उत्पत्तिना प्रथम समयथो आखा भव सुधी प्रतिसमय रचाया करशे, परन्तु स्वकार्य सामर्थ्य पूरतुं रचावाना कारणथी "शरीरपर्याप्ति समाप्त थई" अथवा "श. रीर निष्पत्ति थइ " इत्यादि व्यपदेश थइ शके. ए प्रमाणे अभ्यन्तरनिर्वृत्तिइन्द्रिय स्वकार्य सामर्थ्य पूरशी रचाय अने तेथी जीव अभ्यन्तरनिर्वृत्तिइन्द्रिय द्वारा शब्दादि विषय जाणवा समर्थ थाय के तुर्तज "इन्द्रियपर्याप्ति अथवा इन्द्रियरचना समाप्त थई" एम गणाय. वळी ए प्रमाणेज उच्छवास विगेरे वर्गणा ग्रहणादिनु कार्य थइ शके तेटलां उच्छवासादि करणनां ( औदारिकादिनुं ३ वर्गणामांथी रचायलां) पुद्गलो रचाइ रहे त्यारे “ उच्छवासादि