Book Title: Nandisutram
Author(s): Devvachak, Punyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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है और चन्द्राचार्य, जो साहित्य, तर्क और सिद्धान्तके पारंगत थे, उनकी कृपासे आपको आचार्यपद प्राप्त हुआ था ।
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इस प्रकार यहाँ पर इस आचार्ययुगलके नामों को सुनते ही यह भी संभावना हो आती है कि ये दो आचार्य, सार्धशतकप्रकरणवृत्ति आदिके प्रणेता श्रीधनेश्वराचार्य और न्यायप्रवेशपञ्जिका, निशीथर्विशोदेशकन्याख्या आदिके प्रणेता पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्रीश्रीचन्द्राचार्य, गुरु-शिष्यकी जोडी हों ! । परन्तु पूर्वापर उल्लेखों का अनुसंधान करनेसे प्रतीत होता है किपृथ्वीचन्द्रचरितमें निर्दिष्ट श्रीधनेश्वराचार्य और श्री श्रीचन्द्राचार्य जुदा हैं । इसका कारण यह है कि - ययपिं पृथ्वीचन्द्रचरितमें निर्दिष्ट धनेश्वराचार्य कौन थे ? किनके शिष्य थे ? यह स्पष्ट नहीं है, तौ भी श्री श्रीचन्द्राचार्य, जिनकी सहायसे श्री शान्तिसूरिको सूरिपद प्राप्त हुआ था, वे चन्द्रकुलीन श्रीसर्वदेवसूरि के हस्तसे दीक्षा पाये थे, ऐसा तो इस प्रशस्तिमें साफ उल्लेख है, इससे ज्ञात होता है कि- पार्श्वदेवगण अपरनाम श्री श्रीचन्द्राचार्य से पृथ्वीचन्द्रचरितनिर्दिष्ट श्रीचन्द्राचार्य भिन्न हैं । दूसरी बात यह भी है कि- पार्श्वदेवगण अपरनाम श्री श्रीचन्द्राचार्यका आचार्यपद मैं उपर लिख आया हूं तदनुसार वि. • सं. ११७१ से ११७४ के बीच के किसी भी वर्षमें हुआ है; तब पृथ्वीचन्द्रचरितकी रचना वीरसंवत् १६३१ अर्थात् विक्रमसंवत् ११६१ में हुई है, जिस समय शान्त्याचार्यको आचार्यपद प्रदान करनेके लिये सहायभूत होनेवाले श्री श्री चन्द्राचार्य प्रौढावस्थाको पा चूके थे । अतः ये धनेश्वराचार्य और श्रीचन्द्राचार्य प्रस्तुत नन्दीसूत्रवृत्तिदुर्गपदव्याख्याकार श्रीचन्द्राचार्य और उनके गुरु धनेश्वराचार्यसे भिन्न ही हो जाते हैं ।
इस प्रकार यहाँ नन्दिवृत्तिदुर्गपदव्याख्याकार चन्द्रकुलीन श्री श्रीचन्द्राचार्यका यथासाधनप्राप्त परिचय दिया गया है । मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिकृत नन्दिटिप्पनक
इस नन्दिवृत्तिके उपर मलधारगच्छीय आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिकृत टिप्पनक भी था, जो आज प्राप्त नहीं है । आज पर्यंतमें मैंने संख्याबन्ध ज्ञानभंडारों को देखे हैं, इनमें से कोइ ज्ञानभंडार में वह देखनेमें नहीं आया है। फिर भी आपने इस टिप्पनककी रचना की थी - इसमें कोई संशय नहीं है। खुद आपने ही विशेषावश्यक महाभाष्यवृत्तिके प्रान्त भागमें अपनी ग्रन्थरचनाओंका उल्लेख करते हुए इस रचनाका भी निर्देश किया है । जो इस प्रकार है—
इह संसारवारांनिधौ मां निमग्नं.... अवलोक्य कोऽपि .... महापुरुषः .... चारित्रमयं महायानपात्रं समर्पयामास । भणितवांश्व - भो महाभाग ! समधिरोह त्वमस्मिन् यानपात्रे | समारूढश्चात्र.... भवजलधिमुत्तीर्य प्राप्स्यसि शिवरत्नद्वीपम् । समर्पितं च मम तेन महापुरुषेण सद्भावनामञ्जूषायां प्रक्षिप्य शुभमनोनामकं महारत्नम् । अभिहितं च मां प्रति-रक्षणीयमिदं प्रयत्नत भद्र ! ।........ एतदभावे तु सर्वमेतत् प्रलयमुपयाति । अत एव तव पृष्ठतः सर्वादरेणैतदपहरणार्थं लगिष्यन्ति ते मोहराजादयो दुष्टतस्कराः ।........‘रे रे तस्कराधमाः ! किमेतदारब्धम् ? स्थिरीभूय लगत उगत सर्वात्मना ' इति ब्रुवाणो मोहचरटचक्रवर्ती ससैन्य एवाऽऽरब्धो युगपत् प्रहर्त्तम् । केचित्वतीवच्छलघातिनो मोह सैनिकाः जर्जरयन्ति सद्भावनाङ्गानि । ततो मया तस्य परमपुरुषस्योपदेशं स्मृत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यक टिप्पन काभिधानं सद्भावनामञ्जूषायां नूतनफलकम्, ततोsपरमपि शतकविवरणनामकम् अन्यदप्यनुयोगद्वारवृत्तिसंज्ञितम्, ततोऽपरमप्युपदेशमाला सूत्राभिधानम्, अपरं तु तद्वृत्तिनामकम्, अन्यच्च जीवसमासविवरणनामधेयम्, अन्यत्तु भवभावनासूत्रसंज्ञितम्, अपरं तु तद्विवरणनामकम्, अन्यच्च झटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामञ्जूषाया अङ्गभूतं निवेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं नूतनं दृढफलकम् । एतैश्च नूतनफलकैनिवेशितैर्वज्रमयीव सञ्जाताऽसौ मञ्जूषा तेषां पापानामगम्या । ततस्तैरतीवच्छलघातितया सवर्णयितुमारब्धं तद्द्वारकपाटसम्पुटम् । ततो मया ससम्भ्रमेण निपुणं तत्प्रतिविधानोपायं चिन्तयित्वा विरचयितुमारब्धं तद्द्द्वारपिधानहेतोः विशेषावश्यकविवरणाभिधानं वज्रमयमिव नूतनकपाटसम्पुटम् । ततश्चाभयकुमारगणि धनदेवगणि-जिन भद्रगणि-लक्ष्मणगणि-विबुधचन्द्रादिमुनिवृन्द-श्रीमहानन्द-श्रीमहत्तरावीरमतीगणिन्यादिसाहाय्याद् ' रे रे निश्चितमिदानीं हता वयं यद्येतद् निष्पद्यते,
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