Book Title: Nandisutram
Author(s): Devvachak, Punyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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(७) निरयावलिकादिपश्चोपाडसूत्रवृत्ति । रचना सं. १२२८ । प्रशस्ति
___ इति श्रीश्रीचन्द्रसरिविरचितं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धविवरणं समाप्तमिति । निरयावलिकादिपञ्चोपाङ्गसूत्रवृत्तिग्रन्थानम् ६३७ ॥
वसु-लोचन-रविवर्षे १२२८ श्रीमच्छीचन्द्रसरिभिर्दब्धा । आभडवसाकवसतौ निरयावलिशास्त्रवृत्तिरियम् ॥१॥ (८) पिण्डविशुद्धिपकरणवृत्ति । रचना संवत् ११७८ । प्रशस्ति
____समाप्तेयं श्रीश्रीचंद्रसरिविरचिता सूक्ष्मपदार्थनिष्कनिष्कषणपट्टकसन्निभप्रतिभजिनवल्लभाभिधानाचार्यदृब्धपिण्डविशुद्धिशास्त्रस्य वृत्तिः ॥
यच्चक्रे जिनवल्लभो दृढमतिः पिंडैषणागोचरं, प्रज्ञावर्जितमानवोपकृतये प्राज्यार्थमल्पाक्षरम् ।
शास्त्रं पिण्डविशुद्धिसंज्ञितमिदं श्रीचन्द्रवरिः स्फुटां तद्वृत्तिं सुगमां चकार तनुधीः श्रीदेवतानुग्रहात् ।।१।। वसु-मुनि-रुदैर्युक्ते विक्रमवर्षे ११७८ रखौ समाप्येषा । कृष्णैकादश्यां कार्तिकस्य योगे प्रशस्ते च ॥२॥ अस्यां चतुःसहस्राणि शतानां च चतुष्टयम् । प्रत्यक्षरप्रमाणेन श्लोकमानं विनिश्चितम् ॥३॥ ग्रं० ४४००॥
उपर श्री श्रीचन्द्रसूरिकी जिन आठ कृतियोंके नाम उनकी प्रशस्तियोंके साथ उल्लिखित किये हैं, उनको देखनेसे यह स्पष्ट होता है कि-प्रारम्भकी छ रचनायें चन्द्रकुलीन आचार्य श्रीधनेश्वरके शिष्य श्रीश्रीचन्द्रसूरिकी ही हैं। सातवीं निरयावल्यादिपंचोपांगव्याख्या भी अनुमान इन्हीकी रचना मानी जाती है । आठवीं पिण्डविशुद्धिप्रकरणवृत्तिकी रचना इन्ही आचार्यकी है या नहीं, यह कहना जरा कठिन है । क्यों कि इस रचनामें वृत्तिकारने " श्रीदेवतानुग्रहात्" ऐसा उल्लेख किया है, जो दूसरी कोई कृतिमें नहीं पाया जाता है। यद्यपि रचनाकाल ऐसा है, जो अपने को इन्ही आचार्य की रचना होने की ओर आकर्षण करता है । फिर भी इस बातका वास्तविक निर्णय मैं तज्ज्ञ विद्वानोंके पर छोड देता हूं।
उपर मैंने श्रीश्रीचन्द्राचार्यकी रचनाओंके नाम और उनके अन्तकी प्रशस्तियोंका उल्लेख किया है, उनको देखते ही विद्वानोंके दिलमें एक कल्पना जरूर ऊठेगी कि इन आचार्यकी विक्रमसंवत् ११६९, ११७४, ११७८, ११८०, १२२२, १२२७, १२२८ आदि संवतमें रची हुई जो कृतियाँ पाई गई हैं उनमें सं. ११८० बाद एकदम उनकी रचना सं. १२२२ में आ जाती है, तो क्या ये आचार्य चालीस वर्ष के अंतरमें निष्क्रिय बैठे रहे होंगे ? जरूर यह एक महत्वका प्रश्न है, किन्तु अन्य साधनोंके अभावमें इस समय में इतना ही जवाब दे सकता हूं कि- प्राचीन ग्रन्थों की सूची बृहटिप्पनिकामें, जैनग्रन्थावली आदिमें १ श्रमणप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति २ जयदेवछन्दःशास्त्रवृत्तिटिप्पनक ३ सनत्कुमारचरित र. सं. १२१४ अं. ८१२७ आदि नाम पाये जाते हैं । इसी तरह इनकी और कृतियाँ जरूर होंगी, किन्तु जब तक ऐसी कृतियाँ कहीं भी देखने-सुननेमें न आयें तब तक इनके विषयमें कुछ कहना उचित प्रतीत नहीं होता है । परन्तु यह तो निर्विवाद है किबिचके वर्षोंमें रची हुई इनकी ग्रन्थकृतियाँ अवश्यमेव
पाटन-श्रीहेमचन्द्राचार्य जैनज्ञानमंदिरस्थित श्रीसंघजैनज्ञानभंडार क्रमांक १०२३ वाली प्रकरणपुस्तिकामें श्रीश्रीचन्द्राचार्यकृत अनागतचतुर्विंशतिजिनस्तोत्र है, जो यहाँ उपयुक्त समझ कर दिया जाता है, किन्तु यह कृति कौनसे श्रीचन्द्राचार्यकी है यह कहना शक्य नहीं हैं । स्तोत्र
वीरवरस्स भगवओ वोलियचुलसीयवरिससहसेहिं । पउमाई चउवीसं जह हुंति जिणा तहा थुणिमो ॥१॥ पढमं च पउमनाहं सेणियजीवं जिणेसरं नमिमो । बीयं च परसेणं वंदे जीवं सुपासस्स ॥२॥
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