Book Title: Nandisutram
Author(s): Devvachak, Punyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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श्रीहरिभद्रसूरिप्रणीताया नन्दिसूत्रवृत्तेः टिप्पनकम् ।
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पेच्छ अहो! हरिपमुहा सप्पुरिसा दोसलक्खमझे वि । गिण्हंति गुणं चिय, तह न नीयजुज्झेण जुझंति ॥१॥ एयं असद्दहंतो कोइ सुरो चिंतए, किह णु एयं । संभवइ ? जं अगहिउँ परदोसं चिट्ठए कोइ ॥२॥ इय चिंतिऊण इहई समागओ, तो विउब्धए एसो । बीभच्छकसणवण्णं अइदुग्गंधं मयगसुणयं ॥३॥ तस्स य मुहे विवइ कुंदुज्जलपवरदसणरिंछोलिं । नेमिजिणवंदणत्थं चलियस्स पहम्मि हरिणो य ॥४॥ तं उवदंसइ सुणयं, भग्गं गंधेण तस्स हरिसेण्णं । सयलं पि उप्पहेणं वच्चइ, कण्हो उण सरूवं ॥५॥ विविहं भावतो पोग्गलाण वच्चइ पहेण तेणेव । दळूण सुणयरूवं पभणइ गरुयत्तणेणेवं ॥६॥ अइमसिगकसिणवत्थंचले व्व वयणे इमस्स पेच्छ अहो! । मुत्तावलि ब्व रेहइ निम्मलजुन्हा दसणपती॥७॥ अह चिंतियं सुरेणं, सच्चं जं अमरसामिणा भणियं । नूण गुणं चिय गरुया पेच्छन्ति परस्स, न हु दोसं ॥८॥ अह अन्नदिणे देवो तुरयं अवहरइ वल्लहं हरिणो । सेन्नं च तस्स सयलं विणिज्जियं तेण कुढलग्गं ॥९॥ तो अप्पणा वि विण्ह तुरयस्स कुढावयम्मि पडिलग्गो । अह देवेणं भगियं, जिणिउं घेप्पंति रयणाई ॥१०॥ तो जुज्झामो त्ति भणेइ केसवो, किंतु रहवरे अहयं । तो गेण्ह तुमं पि रहं जेण समाणं हवइ जुझं ॥११॥ नेच्छइ एयं देवो, तुरएहि गयाइएहिं वि स जुझं । जा नेच्छद ता भणिओ हरिणा, तो भणसु तुममेव ॥१२॥ देवेण तओ भणियं, परम्मुहा दो वि होइऊग पुणो । जुज्झामो पुयघारहि, भणइ तो केसवो देवं ॥१३॥ जइ एवं तो विजिओ अयं तुमए, तुरंगमं नेहि । जुज्झामि पुणो कहमवि न हु एरिसनीयजुज्झेणं ॥१४॥ संजायपञ्चओ सो पञ्चक्खो होइऊण तो देवो । भगइ, अमोहं देवाण दंसणं, भणसु कं पि वरं ॥१५॥ अह भणइ केसवो, असिवपसमणि तो पयच्छ मह मेरिं । दिण्णा य सुरेगाऽऽगमणवइयरं साहिउं च गओ ॥१६॥ छण्हं छण्हं मासाण सा य वाइजए तहिं भेरी । जो सुगइ तीए सदं पुवुप्पन्नाउ वाहीओ ॥१७॥ नस्संति तस्स, अवराओ तह य न हु होति जाव छम्मासा । अह अन्नया कयाई वणिओ आगंतुओ कोइ ॥१८॥ दाहजरेण धणियं अभिभूओ भेरिरक्खयं भणइ । दीणारसयसहस्सं गेहसु मह देसु पलमेगं ॥१९॥ भेरीए छिदिऊणं दिण्णं तेणावि लोभवसगेणं । अन्नेण चंदणेण य भेरीए थिग्गलं दिन्नं ॥२०॥ ।
20 इय अन्नाण वि दिंतेण तेण कंथीकया इमा भेरी । अह अन्नया य असिवे हरिणा ताडाविया एसा ॥२१॥ कंथत्तणेण तीसे सद्दो सुवइ न हरिसभाए वि । कंथीकरणवइयरो विण्णाओ केसवेण तओ ॥२२॥ माराविओ य सो भेरिरक्खओ, तेण अट्रमं काउं । आराहिओ स देवो, अन्नं भेरिं च सो देइ ॥२३॥ अन्नो य केसवेणं कओ तहिं भेरिपालओ, सो य । रक्खइ तं जत्तेणं, लहइ य लाभं च तो हरिणो ॥२४॥
इह चेत्थमुपनयोऽपि द्रष्टव्यः-यः शिष्योऽशिवोपशमिकाभेरीप्रथमरक्षक इव जिन-गणधरप्रदत्तां श्रुतरूपां भेरी परम- 25 तादिथिग्गलकैः कन्थीकरोति स न योग्यः, यस्तु नैवं करोति स द्वितीयभेरीरक्षक इव योग्य इति ॥२३॥२४॥२५॥
अथाऽऽभीरीदृष्टान्तं विवृण्वन्नाहपं. ७. मुक्कं तया अगहिए, दुपरिग्गहियं कयं, तया कलहो ।
पिट्टण, अइचिर, विक्किय गएसु चोराऽऽय, ऊणऽग्यो ॥२६॥ इह च कथानकेन भावार्थ उच्यते । तद्यथा-कुतश्चिद् ग्रामाद् गोकुलाद्वा आभीरीसहित आभीरो घृतवारकाणां गन्त्री 30 भृत्वा विक्रयार्थ पत्तने समागतः । विक्रयस्थाने च गन्त्र्या अधस्ताद् भूमौ आभीरी स्थिता, आभीरस्तूपरि व्यवस्थितस्तस्या घृतवारकं समर्पयति । ततश्चानुपयोगेन समर्पणे ग्रहणे वा घृतवारके भग्ने आभीरी प्राह-भग्नाश! नगरतरुणीनां मुखान्यवलोकयमानेन त्वया
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