Book Title: Nandisutram
Author(s): Devvachak, Punyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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तइयं सुपासनामं उदायजीवं पणट्टभववासं । वंदे सयंपभजिणं पुट्टिलजीवं चउत्थमहं ॥ ३ ॥ सव्वाणुभूयनामं दढउजीवं च पंचमं वंदे । छटुं देवसुयजिणं वंदे जीवं च कित्तिस्स ||४|| सत्तमयं उदयजिणं वंदे जीवं च संखनामस्स । पेढालं अट्ठमयं आणंद जियं नम॑सामि ||५|| पुलजिणं च नवमं सुरकयसेवं सुनंदजीवस्स । सयकित्तिजिणं दसमं वंदे सयगस्स जीवति ॥६॥ एगारसमं मुणिसुव्वयं च वंदामि देवईजीवं । बारसमं अममजिणं सच्चइजीवं जगपई ||७|| निकसायं तेरसमं वंदे जीवं च वासुदेवस्स । वलदेवजियं वंदे चउदसमं निप्पुलाइजिणं ॥ ८ ॥ सुलसाजीवं वंदे पनरसमं निम्ममत्तनामाणं । रोहिणिजीवं नमिमो सोलसमं चित्तगुतं ति ॥९॥ सत्तरसमं च वंदे रेवड्जीवं समाहिजिणनामं । संवरमद्वारसमं सयालिजीवं पणिवयामि ॥ १० ॥ दीवायणस्स जीवं जसोहरं वंदिमो इगुणवीसं । कन्हजियं गयतन्हं वीसइमं विजयमभिवंदे ॥११॥ वंदे इगवीसइमं नारयजीवं च मल्लिनामाणं । देवजिणं बावीसं अंबडजीवस्स वंदे हं ॥१२॥ अमरजियं तेवीसं अणतविरियाभिहं जिणं वंदे । तह साइबुद्धजीवं चउवीसं भद्दजिणनामं ॥ १२ ॥ उस्सप्पिणीए चउवीसजिणवरा वित्तिया सनामेहिं । सिरिचंद सूरिनामेहिं सुहयरा हुंतु सयकालं ||१४||
॥ इति अनागतचतुर्विंशतिजिनस्तोत्रम् ॥
यहाँ पर एक बात को स्पष्ट करना अति आवश्यक है कि- प्राकृत पृथ्वीचन्द्रचरितके प्रणेता चन्द्रकुलीन श्रीशान्तिस्वरिजीने अपने इस चरितकी मंगलगाथामें सूचित किया है कि- ' धनेश्वराचार्य की अर्थगम्भीर वाणीका आपके उपर बडा प्रभाव पड़ा है' और इसी चरितकी प्रशस्ति में आपने लिखा है कि-चन्द्रकुलीन श्रीसर्वदेवसूरिके स्वहस्तसे दीक्षा पाने वाले श्रीश्रीचन्द्राचार्यकी कृपासे आपको आचार्यपद प्राप्त हुआ है । वह मंगलगाथान्तर्गत गाथा और प्रशस्ति इस प्रकार है । मंगलगाथान्तर्गतगाथा
जन्नाणघणलवेणं ववहरमाणा वयं मइदरिदा । करिमो परोवयारं तेसि नमो गुरु धणेसाणं ॥ १० ॥
प्रशस्ति
आसी कुंदिंदुसुद्धे विउलससिकुले चारुचारित्तपत्तं सूरी सेयंबराणं वरतिलयसमो सव्वदेवाभिहाणो । नाणासूरिप्पसाहापहियसुमहिमो कप्परुक्खो व्व गच्छो जाओ जत्तो पवित्तो गुणसुरसफलो सुप्पसिद्धो जयम्मि ॥१॥ तेसिं चाssसी सुयजलनिही खंतदंतो पसंतो, सीसो बीसो सियगुणगणो नेमिचंदो मुणिदो ।
जो विक्खाओ पुइवलए सुग्गचारी बिहारी, मन्ने नो से मिहिर ससिणो तेय-कंतीहिं तुला ॥२॥
तेसिं च सीसो पयईजडप्पा, अदिट्ठपुब्बिविसिसत्थो । परोवयारेक्करसावियज्झो, जाओ निसग्गेण कइत्तकोडी ॥ ३ ॥ जो सव्वदेवमुनिपुंगव दिक्खिए हिं, साहित्त-तक्क-समएसु सुसिक्विएहिं ।
संपाविओ वरपयं सिरिचंदन रिपुज्जेहिं पक्खमुवगम्म गुणेभूरि ||४||
संवेगंबुनिवाणं एयं सिरिसंतिसूरिणा तेणं । वज्जरियं वरचरियं मुणिचंदविणेयवयणाओ || ५ || नइ किंचि अजुत्तं वृत्तमेत्थ मइजड - रहसवित्तीहिं । तमणुग्गहबुद्धीए सोहेयव्वं छइलेहिं ॥ ६ ॥ इगतीसाहियसोलससएहिं वासाण निव्वुए वीरे । कत्तियचरिमतिहीए कित्तियरिक्खे परिसमत्तं ||७||
उपर दी गई पृथ्वीचन्द्रचरितकी मंगलगाथान्तर्गत दसवीं गाथा और उसकी प्रशस्ति को देखनेसे यह प्रतीत होता है किप्राकृत पृथ्वीचन्द्रचरित के प्रणेता आचार्य श्रीशान्तिसूरिके हृदयपर श्रीधनेश्वराचार्य के अर्थगंभीर विचारोंका भारी प्रभाव पडा
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