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काव्यानवादः
माता
मैं माँ हूँ। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमा प्रकृति का अनुभवगोचर स्थूलरूप है मेरा। कहते हैं सब मुझे प्यार से 'धरा' 'वात्सल्य-धारा' ॥
धारण करती बच्चों को सब बच्चों को और अच्छों को; नाहीं कोई भेदभाव मेरे मन में पुष्टि प्यार से भर देती हूं कणकण में ||
मेरे प्यार पर सभी यहां पर पलते हैं, पांव सटाकर, मेरे पर ही चलते हैं ।
जानूं मैं - वे बच्चे हैं, माँ के मन से अच्छे हैं; सहजभाव के बच्चे, मन के सच्चे हैं ।
__हिन्दी काव्यले. प्रा. चन्द्रिका पाठक बी.डी. कोलेज, अहमदाबाद-१
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