Book Title: Mokkha Purisattho Part 03 Author(s): Umeshmuni Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti View full book textPage 7
________________ ( छ: ) असंदिग्ध बात है। किन्तु चिन्तन के उद्गम-स्रोतों का उल्लेख करना संभव नहीं है क्योंकि पठन करने के पश्चात् जो संस्कार, स्मृति और अनुप्रेक्षा हई उसी से ये विचार उद्भूत हैं। साथ ही अनुप्रेक्षा में प्राप्त स्वतंत्रता का भी कई स्थानों में उपयोग किया है। यह एक छद्मस्थ आत्मा का चिन्तन है । इसलिये इसमें अपूर्णता, स्खलना, भ्रान्ति आदि होना संभव है.। अतः मेरा वह दुष्कृत निष्फल हो यह भावना करता हूँ। मेरे गुरुभ्राता पं. श्री रूपेन्द्रमुनिजी म. सा. की कृपा का ही यह सुफल है गुरुभ्राता का मैं बहुत ही आभारी हूँ। साथ ही उपकारियों के प्रति धन्यवादपूर्वक यह सत्कामना करता हूँ कि यह चिन्तन साधकों के लिये जिन-वचन से अविरुद्ध परिणत होकर साधना में अंगुलि-निर्देश का कार्य करे। इस तृतीय भाग में ३१३ गाथाओं (पद्यों) का विवेचन हुआ है। श्री धर्मदास कृष्ण-स्मृति जैन भवन, ३७, साउथ राजमोहल्ला, इन्दौर २३-५-१९९० उमेशमुनि 'अणु' सुक्ति-सुधा ___(१) मोह, जीव का ही विकारी भाव है । अतः वह जीव में ही व्याप्त है। .. (२) भ्रम का कारण अज्ञान है और संसार में अज्ञान की कमी नहीं हैं। मोह के समान अज्ञान की कमी नहीं है। मोह के समान अज्ञान को भी अन्धकार के तुल्य बतलाया गया है। (३) अपने हृदय में उठी हुई शंका को तत्वज्ञजनों के समक्ष न रखकर अपने मन में ही जमा रखना अनुचित है। प्रवर्तक श्री उमेशमुनिजी म. 'अणु'Page Navigation
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