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॥ मेरु मंदर पुराण कथा का संक्षिप्त सार ॥
ग्रंथ परिचय
प्रथम अध्याय का सार
वैजयंत को मुक्ति दान
इस जम्बूद्वीप के मध्य में विदेह क्षेत्र संबंधी गंधमालनी देश में वीतशोकपुर नाम का नगर था । उस नगर का राजा अत्यंत धार्मिक, शूरवीर तथा सभी शत्रु राजाओं के लिये यम के समान वैजयंत नाम का था । उस राजा की पटरानी का नाम सर्व श्री था। ये दोनों इन्द्रिय भोग व सुख से अपना काल व्यतीत करते थे । समय पर रानी को गर्भ रह् गया। नवमास पूर्ण हो जाने पर पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उस पुत्र का नाम संजयंत रखा । कुछ समय पश्चात् दूसरे पुत्र का जन्म और हुआ। उसका नाम जयंत रखा । बडा होने पर प्रथम पुत्र संजयंत का विवाह संस्कार हो गया। तत्पश्चात् कई दिनों के बाद संजयंत के पुत्ररत्न उत्पन्न हो गया उसका नाम वैजयंत रखा गया। पौत्ररत्न के उत्पन्न होने से आनंदोत्सव मनाया गया और याचकों को अनेक प्रकार के इच्छा पूर्वक दान देकर उनको संतुष्ट किया ।
तब उसी समय अशोक नाम के उद्यान में भगवान स्वयंभू तीर्थंकर का समवसरण प्राया | उस उद्यान के वनपाल ने राजा को सूचना दी। राजा अपने पुरजन सहित समवसरण में गया और भगवान के तीन प्रदक्षिणा देकर रूपस्तव, वस्तुस्तव, गुरणस्तव तीन प्रकार से स्तुति की । तदनंतर भगवान की दिव्यध्वनि द्वारा जीव अजीव आदि सप्ततत्व, नव पदार्थ का स्वरूप समझा । जो भव्य जीव इन तत्त्वों पर पूर्णतया भक्तिपूर्वक श्रद्धान करता है, उसको सम्यक् दर्शन कहते हैं । उन तत्त्वों जो जानने को सम्यक्ज्ञान और तदनुसार प्राचरण करने को सम्यक् चारित्र कहते हैं। ये ही रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग हैं । इस प्रकार भगवान ने उपदेश दिया ।
राजा वैजयंत, संजयंत औौर जयंत ने इस उपदेश को सुना और वे तीनों संसार से विरक्त हो गये । उनने अपने पौत्र वैजयंत का राज्याभिषेक कर दिया और तीनों ने दिगम्बर जिनदीक्षा धारण की ।
दीक्षा के अनन्तर वे वैजयंत मुनि एकल विहारी होकर एक पर्वत की चोटी पर जाकर धर्मध्यान में लीन हुए, शुक्ल ध्यान का चिंतन किया और शुक्ल ध्यान के द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर अहंत पद को प्राप्त किया और तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । तदनंतर धरणेंद्र अपने परिवार सहित पूजा के लिये आया । उस समय जयंत मुनि ने तपस्या करते समय इन धरणेंद्र को परिवार सहित पूजा करने के लिये प्राया देखकर
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