Book Title: Meru Mandar Purana
Author(s): Vamanacharya, Deshbhushan Aacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ अभिप्राय जैनाचार्यों की प्रशस्त भावना सदा ही रहती है। वे कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं । अपने पर उपसर्ग करने वाले पर भी वे मन में समताभावों को धारण करते हैं । जगत में उनकी समता की कहीं उपमा नहीं है। वैर विरोध राग आदि कषायों का संबंध एक पक्ष से चलता है। कहीं दोनों तरफ से भी वैर चलता है। इन ही कषायों से संसार चल रहा है। जिससे सब ही जीव नरक प्रादि योनियों में कितनी ही बार जाकर वहां पाप पुण्य के फलों को भोगते हैं। कोई बिरले ही जीव संसार से वैराग्य को धारण कर प्रात्म-कल्यारण का पुरुषार्थ करते हैं। कोई जीव धर्म से अरुचि कर अपने द्वारा ही अपना अहित करता है। ऐसे जीवों की संख्या की कमी नहीं है। उनको संबोधन करके धर्म मार्ग में चलाने के लिये ही उपदेशक ग्रन्थ भी लिखे हैं। भव्य जीवों के कल्याणार्थ बहुत परिश्रम किया है। सदा से जिनवाणी चार अनुयोगों के रूप में विभक्त हो रही है । सब से पहले पुण्य पाप का निर्णय करने तथा संसार से वैराग्य उत्पन्न करने के लिये पुण्य पुरुषों की कथा के व्याख्यान रूप प्रथमानुयोग ग्रन्थ प्रथम पदवी में स्थित होने वालों के लिये बनाये गये हैं। दृष्टांतों के द्वारा मति विशद हो जाती है। इसलिये महान् प्राचार्यों ने परिश्रम करके सभी अनुयोगों के ग्रन्थों का भव्य जीवों के उपकार के लिये निर्माण किया है । अपने देश की भाषा से साधारण बुद्धिवाले जीव भी लाभ उठावें । क्योंकि संस्कृत प्राकृत भाषा तो अध्ययन करने से पाती है । अपनी लोकप्रिय भाषा में प्राचार्यों ने ग्रन्थ प्रस्तुत कर दिये हैं। परम्परा से प्राचार्य रचना करते आये हैं। जो आज तक हस्तलिखित ग्रन्थ जैन ग्रथ भण्डारों में विद्यमान हैं। मूल संघ की परम्परा तामिलदेश में सब से पाचीन है। अनेक प्राचार्यों ने अध्यात्म ग्रंथ भी निर्माण किये हैं। उसी परंपरा में श्री मल्लिषेण आचार्य अपर नाम वामन मुनि भी हो गये हैं। उन्होंने मेरु मंदर ग्रंथ की रचना की है । इस ग्रंथ में पाप पुण्य का फल अच्छी तरह दर्शाया गया है। तामिल देशवासी ही इसका मानंद ले सकते थे। श्री १०८ प्राचार्यरत्न देशभूषण महाराज ने इस ग्रंथ की उपादेयता पर ध्यान देकर इसको तामिल भाषा से कनडी भाषा में अनुवाद किया। फिर हिंदी में अनुवाद किया। श्री महाराज ने इस ग्रंथ को लिखने में गत पूरे जयपुर चातुर्मास का उपयोग किया है। मेरी यह कामना है कि इस ग्रंथ का स्वाध्याय कर सब ज्ञान पिपासु बंधु पूर्ण आत्महित का लाभ लेवें। इसके संशोधन में सहयोग मैंने भी दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 568