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वाङ्मय हो वह राष्ट्र की सम्पत्ति है, क्यों कि वह मानव मात्र के उपयोग की वस्तु है। इसमें जो चिरंतन सत्य निहित होता है मानव निर्माण में उसका बहुत बड़ा हाथ होता है । जो कभी पुराना नहीं होता और नित्य नूतन होना ही जिसकी विशेषता है वही सत्साहित्य कहलाता है। ऐसे साहित्य पर काल और क्षेत्र की सीमाओं का कोई असर नहीं होता इसलिए कुछ. लोगों का यह कहना कि प्राचीन साहित्य आज के युग के लिए उतना उपयोगी नहीं है जितना अपने निर्माण के समय था बिलकुल व्यर्थ है। यह ठीक है कि प्राचीन को सदा ही संस्कार की जरूरत रहती है इसलिए नये निर्माण द्वारा उसका संस्कार होते रहना चाहिए। इसके लिए सतत प्रयत्नों की जरूरत है।
महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन एक प्रकार से ऐसा ही एक प्रयत्न है। हमें बहुत बहुत प्रसन्नता होगी अगर हमारा यह सत् प्रयत्न आगे आने वाले अनेक वर्षों तक चालू रहा ।
इस सन १६६४ की महावीर जयन्ती स्मारिका में जिन विद्वान लेखकों ने अपनी रचनाएं भेजकर हमें अनुगृहीत किया है उनके प्रति फिर एक बार कृतज्ञता प्रकट करते हुए हम आशा करते हैं कि वे भविष्य में भी हम पर ऐसा ही अनुग्रह रखेंगे।
-चैनसुखदास
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