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सम्पादकीय वक्तव्य
सन १९६४ की यह महावीर जयन्ती स्मारिका पाठकों के सन्मुख प्रस्तुत करते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता होती है । सन १९६२ और सन १९६३ की महावीर जयन्ती स्मारिकाएं हमारे विद्वान पाठकों ने बहुत पसन्द की हैं । हिन्दी के प्रख्यात दैनिक एवं साप्ताहिक आदि पत्रों ने भी इनकी अनुकूल समालोचनाएं की हैं । संक्षेप में सभी ने हमारे इस प्रयत्न की प्रशंसा की है। इससे सचमुच हमें बड़ा बल मिला है और हमारे उत्साह में वृद्धि हुई है । इस सबके लिए हम उनके बहुत बहुत कृतज्ञ हैं ।
हम सब से अधिक कृतज्ञ उन विद्वान लेखकों के हैं जिन्होंने हमें इन स्मारिकाओं के लिए अपनी खोज पूर्ण रचनाएँ भेजकर उपकृत एवं अनुगृहीत किया है ।
हम इन स्मारिकाओं में जो कमियां रही हैं उनसे अच्छी तरह अवगत हैं । इनसे हमें स्वयं असन्तोष है; किन्तु हमारे साधन बहुत सीमित हैं और इसका कारण है प्रार्थिक कठिनाई । मुख्य रूप से यही कठिनाई मनुष्य के किसी भी लौकिक काम में बाधा उपस्थित कर देती है । इस बाधा पर विजय प्राप्त करना भी कोई सरल कार्य नहीं है । यदि जैन समाज के धनी सज्जन ऐसे पावन पवित्र कार्यों में अपने दान का सदुपयोग करें तो भगवान श्री महावीर की सर्व जीवन कल्याणकारिणी पुनीत वाणी को जन साधारण तक पहुंचाने में हमें बहुत मदद मिल सकती है ।
आवश्यकता इस बात की है कि जैन वाङ्मय के प्रचार प्रसार के लिए कोई योजना बद्ध काम हो । भारत की विविध भाषाओं में निबद्ध इस निधि के उपयोग की ओर अभी तक किसी का भी यथेष्ट ध्यान नहीं गया है । जो इस वाङ्मय में युगानुसारी एवं लोकोपयोगी तत्त्व है उससे सर्व साधारण तभी लाभ उठा सकता है जब यह हरएक के लिए सुलभ बना दिया जाय । चाहे किसी भी धर्म का
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