Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1964
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 52
________________ प्राचार्य हेमवन्द्र के समय से गुजरात जैन-साहित्य बुद्धरास, नलदमयंती रास, प्रियमेलक चौपाई, सीताराम और जैन संस्कृति से विशेष प्रभावित रहा है। विभिन्न चौपाई ग्रादि तथा क्षमा छत्तीसी आदि अनेक छत्तीसियां विषय के धुरीण विद्वानों ने गुजरात के साहित्य-भंडार, प्रमुख हैं। को भरा है। आनन्दघन, यशोविजय और श्रीमद्रायचन्द्र उन्हीं के समसामयिक उपाध्याय गुणविनय ने भी जसे अनेक योगनिष्ठ व्यक्तियों की अध्यात्म-रस-प्लावित अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उनमें कयवन्नासंधि वाणी भी मुख्यतः गुजराती में ही प्रस्फुटित हुई है १ अंजना प्रबंध, गुणसागर चौपाई, नलदमयंती रास, राजस्थानी भाषा धनशालिभ्रद्र चौपाई आदि अनेक ग्रन्थ है। इस शती के ईस्वी पंद्रहवीं शती तक गुजराती और राजस्थानी अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थकार सहजकीत्ति, श्रीसार, जिनराजसरि, में भाषाभेद बहत अस्पष्ट और अल्प ही था अतः उस हेमरत्न, कुशललाभ, कनकसोम आदि हैं। समय तक के साहित्य को दोनों ही अपना-अपना साहित्य अठारहवीं शती में रास, चौपाई आदि के अतिरिक्त मानते हैं । भाषागत इतनी समानता का कारण दोनों बावनो, छत्तीसी आदि भी बहुलता से लिखी गई हैं । प्रदेशों में जैन संतों का अबाध पावागमन ही मुख्यतः इस शती के प्रमुख लेखक कविवर जिनहर्ष एक लाख कहा जा सकता है। दोनों देशों की सीमानों के इधर- पद्यों के रचयिता माने जाते हैं। उन्होंने रास, चौपाई उधर पाने-जाने वाले मुनिजनों के कारण दोनों के प्रादि के अतिरिक्त ज्ञातासूत्र सज्झाय, दशवैकालिक गीत सांस्कृतिक सम्बन्ध अविच्छिन्न रहे हैं । उन के साहित्य आदि भी लिखें हैं । उनके अतिरिक्त महोपाध्याय र उपदेशों से भी दोनों की अभिन्नता पुष्ट होती रही लब्धोदय, धर्मवर्धन, लाभवर्धन, कुशलधीर, जिनसमुद्र है । पश्चात्काल में जब विहार क्षेत्र सीमित होता गया, सूरि, लक्ष्मीवल्लभ, रामविजय प्रादि भी प्रसिद्ध लेखक तब कुछ संत केवल गुजरात में तो कुछ केवल राजस्थान हुए है। में ही विहार करने लगे। फलतः उनकी भाषा में रामविजय ने पद्य की अपेक्षा गद्य अधिक लिखा है। प्रादेशिक विशेषताओं का समावेश होता गया । दूरी को उन्नीसवीं शती में रघुपति, ज्ञानसार, क्षमाकल्याण, पाटने वाला आदान-प्रदान बंद हो जाने से स्पष्ट रूप प्राचार्य जयमलजी आदि अनेक कवि हए हैं। मे भिन्नता लक्षित होने लगी। १६वीं शती के अन्तिम उन्नीसवीं शती में तेरापंथ के संस्थापक प्राचार्य भाग में यह भेद निखरने लगा था । १७वी-१८वीं शती भीखणजी ने राजस्थानी जैन साहित्य में एक नया स्रोत में दोनों का मिश्रित रूप चलता रहा था। परन्तु १६ बहाया। उन्होंने प्राचार-क्रान्ति करके तेरापंथ की स्थापना २०वीं शती तक वह एक निश्चित रूप धारण कर चुका की थी; अतः उनके लेखन में भी उसी क्रान्ति के स्वर था, यही काल संतों के बिहार क्षेत्रों के सीमित होने बहुलता से आए हैं । उनकी समस्त कृतियों में प्राचार का भी है। यति, दि० भट्टारक, स्थानकवासी, तेरापंथ और विचार को शोधन करने वाली भावधारा कार्य पादि सभी श्रमण-समुदायों ने राजरथानी में प्रचुर मात्रा करती दृष्टिगत होती है । उनका समग्र साहित्य ३८ में लिखा है। सहस्र पद्य-प्रमाण है । उन्होंने धार्मिक समीक्षा, अध्यात्म, सत्रहवीं शती में राजस्थानी के समर्थ रचनाकार अनुशासन, ब्रह्मचर्य, रूपक, लोककथा और प्रात्मानुभूति श्री समयसुन्दर हए है। वे संस्कृत के भी धुरंधर विद्वान के माध्यम से राजस्थानी के साहित्यिक क्षितिज को थे । 'प्रलक्षी' उन्हीं की कृति है। उनका समग्र साहित्य ब्यापकता प्रदान की है। प्राचार की चौपाई, अनुकंपा एक लाख पद्य-प्रमाण कहा जाता है। उसमें काफी बड़ा की चौपाई, विनित-अविनित की चौपाई, निक्षेपों की भाग राजस्थानी का है । उसमें शांवप्रद्युम्नरास, प्रत्येक चौपाई, नवपदार्थ सद्भाब निर्णय, बारहवत की चौपाई, १-गुजराती के साहित्य और साहित्यकारों की विशेष जानकारी के लिए देखिए 'जैनगुर्जर कवियो' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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