Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1964
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 119
________________ किसी अन्य विशेष पर आधारित नहीं है । यह उन यह प्रमुख विचारणीय विषय है कि दिगम्बर तथा धार्मिक विधि-विधानों में जकड़ा नहीं है, जिनका प्रति- श्वेताम्बर शाखायें किस प्रकार कब व कैसे प्रस्फुटित पादन विशेष परिस्थितियों में किसी विशिष्ट महापुरुष हुई। यह निर्विवाद और सन्देह रहित हैं कि मन्दिर द्वारा किया गया मिलता है। वह चमत्कारों का पिटारा मार्ग के साथ बाहरी पाडम्बर प्रपंच तथा निरर्थक दिखावे नहीं है। वह तो उन चौबीस तीर्थकारों की तपःपूत प्रादि स्वतः ही जुड़ जाते हैं। दान-दक्षिणा का महत्व साधना का परिणाम है, जिसको मानवजीवन की रसायन बढ जाता है । धर्म की ठेकेदारी और कमीशन एजेंसी साला का सर्वोत्कृष्ट प्रयोग कहा जा सकता है। प्रथम की प्रवृतियाँ पनपने लगती है। इसी कारण लगभग चार तीर्थकर ऋषभदेव के समय से अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ सौ वर्ष पहले जैन धर्म में वीर लोकाशाह के रूप में से करीब-अड़ाई हजार वर्ष पूर्व चौबीसवें तीर्थकर एक उत्क्रान्ति हुई, जिसको स्थानकवासी नाम दिय. गया। भगवान महावीर के समय तक मानव जीवन के निखार वीर लोकाशाह ने पूरे साहस, विश्वास और निष्ठा के व परिष्कार की जो प्रक्रिया सतत् व निरन्तर चलती ___साथ यह प्रतिपादन किया कि जैन प्रागमों में मन्दिर रही. उसको भगवान महावीर के बाद जैनधर्म का नाम मार्ग का विधान नहीं है । उनकी वही गति प्राप्त हुई दे दिया गया । वस्तुतः जैन शब्द का प्रयोग भगवान जो महान सुधारकों के भाग्य में लिखी होती हैं । सुकरात महावीर से पहले व्यवहार में नहीं था, और जैनधर्म को जहर का प्याला पिलाया गया। ईसा को फांसी पर उनसे पहले अनेक रूपों और अनेक नामों से विद्यमान लटकाया गया। स्वामी दयानन्द को आहार में विष था। व्यावहारिक दृष्टि से उसके आधारभूत पांचों दिया गया। स्वामी श्रद्धानन्द और महात्मागांधी को प्राणुव्रतों तथा महाव्रतों का प्रतिपादन भी क्रमशः हमा गोली के घाट उतारा गया। वीर लोकाशाह को भी है। वह ऐसी कोई बनी बनाई अथवा घड़ी हई व्यवस्था प्राहार में विष दिया गया था। नहीं थी, जिसमें रंगमंच की तरह मानव को लाकर खडा जैन धर्म में एक और उत्क्रांति प्राज से लगभग कर दिया गया हो । वह तो उन अनुभूत प्रयोगो को ही दो सौ पर्व हई। चार सौ वर्ष पूर्व पश्चिम से इस्लाम के निष्पति है, जिनका सूत्रपात भगवान ऋषभदेव के समय रूप में जो प्रचण्ड वेगवती लहर हमारे देश में पाई थी हुप्रा और जिनका क्रम निरन्तर बना ही रहा । समभावना और जिसका लक्ष्य बलात् मन्दिर मार्ग पर आक्रमण से प्रादुर्भूत इन अनुभूतियों में से ही अहिंसा, सत्य, करना था, उससे स्थानकवासी उत्क्रांति ने जैनधर्म को प्रस्ततेय और ब्रह्मवर्य के व्रतों का प्रादुर्भाव हुप्रा । जब बचा लिया। इसी प्रकार दो सौ पूर्व पश्चिम से इसाई यह अनुभव किया गया कि ब्रह्मवर्य की साधना के लिए धर्म के रूप में जो एक और प्रचण्ड लहर आई, उससे केवल बाहरी अपरिग्रह पर्याप्त नहीं है और भीतर की तेरापंथ उत्क्रांति ने जैनधर्म को बचालिया । दोनों ही रागद्वेष जन्य प्रवृत्तियों पर भी विजय प्राप्त करना उत्क्रांन्तियों का शुभ परिणाम यह भी हुप्रा कि संयम प्रावश्यक है, तब जितेन्द्रियता की भावना में से 'अपरि और अहिंसा पर समाज की निष्ठा हढ़तर हुई। वह उस ग्रह' का प्रादुर्भाव हुमा । धर्म के चातुर्याम रूप में पांचवें नैतिक पतन से बच गया, जिस पर ज्ञानमुखी पतन की व्रत प्रथवा महाव्रतों की प्रतिष्ठा हुई । इस जितेन्द्रियता स्थिति चरितार्थ होती है। जैन साधु चाहे किसी भी की ही भावना में से 'जैन' नाम का प्रादुर्भाव हुआ। शाखा से सम्बन्धित क्यों न हो, वह समाज के सम्मुख भगवान महावीर के बाद त्याग-तपस्या, संयम और अपरिग्रह का उच्चतम व मानव जीवन के निखार या परिष्कार की प्रकिया। उत्कृष्ट मादर्श उपस्थित करता है । उसके ही कारण भगवान महावीर के बाद भी जारी रही । जैनधर्म में जैन समाज में इन गुणों की प्रतिष्ठा कायम है। इस मन्दिर मार्ग का समावेश कब, कैसे और क्यों हमा,-यह प्रकार जैनधर्म और जैन समाज दोनों विकारों से सुरक्षित इस निबन्ध का मुख्य विचारणीय विषय नहीं है और न रहने में सफल हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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