________________
जैन कवियित्री : बड़ावली की काव्य साधना
• डॉ. नरेन्द्र भानावत
एम. ए. पी-एच. डी. जयपुर
. जैन पुरुष कवि तो कई हुए हैं पर जैन स्त्री कवियों की संख्या नगण्य है। सती जड़ावजी जैन कवयित्रियों में नगाने की तरह जड़ी हुई प्रतीत होती है। कविता करना उनकी जीवन चर्चा का एक अंग बन गया था। ५० वर्ष की सुदाघ साधना-काल में जड़ावजी ने जीवन के विविध अनुभव प्रात्मयात कर काव्य में उतारे । उनका जीवन जितना साधनामय था काव्य उतना ही भावनामय ।
कविता हृदय की सहज अभिव्यक्ति है । इसके प्रणयन प्रात्म बोध का परिचय देती है तो दूसरी ओर काव्य
" में प्रेम, पीड़ा और पिपासा की प्रधानता रही है। क्षेत्र से उनका यह अलगाव हमें आश्चर्य में ही नहीं नर ने अपने पौरुष, सामर्थ्य और बल का दिग्दर्शन इसके डालता वरन हमारे शोध-मस्तिष्क को बार बार कुरेदता माध्यम से कराया तो नारी ने अपनी करुणा, ममता भी है।। और विसर्जन का स्वर इसके शब्द प्रति शब्द में फूका। हिन्दी कवयित्रियों १ पर अब तक जो शोध कार्य पर संरक्षित साहित्य में पूरुष का कृतित्व ही अधिक हया है उसके द्वारा विभिन्न प्रवृत्तियों और धाराओं उभर कर हमारे सामने पाया है। स्त्री के कृतित्व की का प्रतिनिधित्व करने वाली कई कवयित्रियां हमारे सामान्यतः उपेक्षा ही बनी रही। यों वैदिक संस्कृत सामने आई हैं । एक ओर भीमा और पद्माचारणी जैसी साहित्य से ही विश्वपा, घोषा, नितम्बा, गार्गी, मैत्रेयी, कवयित्रियों ने डिंगल काव्य-धारा को अपने प्रोज और लोपामुद्रा, यमी चैवस्वती आदि की सृजनात्मक प्रतिभा माधुर्य से सींचा है तो दूसरी और सहजो और दमा बाई का संवेत मिलने लगता है। बौद्ध भिक्षुणियां भी अपने जैसी संत कवयित्रियों ने निगुण काव्य धारा को अपना विरक्तिमूलक पद गा गा कर प्रात्मा का विस्तार करती आध्यात्मिक भाव बोध दिया है। इसी युग में गीति रहीं पर उस युग की जैन कवयित्रियों का पता अब तक काव्य की साम्राज्ञी मीरा ने जन्म लेकर सगुण और नहीं लगा है। एक ओर भगवान महावीर के चरणों में निर्गुण भक्ति सरिता को सन्तुलित प्रवाह और तट का सर्वस्व समर्पित कर देने वाली महान सतियों की बन्धन दिया। प्रताप कुवरी तुलछराय, चन्द्रकला बाई (आर्यापों) उज्जवल गाथा हमें उनके गूढ़ ज्ञान और आदि कवयित्रियों ने जहां राम को अपना प्राराध्य
१. इस संबंध में दो ग्रन्थ दृष्टव्य हैं(अ) मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ ।
-डा. सावित्री सिन्हा (ब) राजस्थानी कवयित्रियाँ ।
-श्री दीनदयाल प्रोझा (प्रेरणा : फरवरी १६६३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org