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इन प्राणों की संख्या दस है, पांच ज्ञानेन्द्रियां मनोबल, उसका पात्र प्रादि इस दृष्टि से तो प्रात्मा ज्ञान का वचन बल और कायबल यह तीन बल, श्वासोच्छवास प्राधार नहीं अपितु ज्ञानमय उपयोगमय अर्थात् ज्ञान
और प्राय । यह दस प्राण मनुष्य, पशुपक्षी देव और दर्शनात्मक ही है। यह मान्यता भी समन्वयवादी है। नारकियों के होते हैं । इनके अतिरिक्त भी दुनियां प्रात्मा का तीसरा विशेषण है अमूर्त । यह विशेषण में अनन्तानन्त जीव होते हैं । जैसे वृक्ष लता प्रादि, लट भद्र और चार्वाक दोनों को लक्ष्य करके कहा गया है। आदि, चींटी प्रादि, भ्रमर आदि, और गोहरा आदि। ये दोनों दर्शन जीव को अमूर्त नहीं मूर्त मानते हैं । इन जीवों के क्रमशः चार, छह, सात, पाठ, और नौ किन्त जैनदर्शन की मान्यता है कि वास्तव में प्रात्मा प्राण होते हैं।
में पाठ प्रकार के स्पर्श पांच प्रकार के रूप, पांच प्रकार अात्मा नाना योनियों में विभिन्न शरीरों को प्राप्त के रस, और दो प्रकार के गंध इन बीस प्रकार के हमा कर्मानुसार अपने व्यावहारिक प्राणों को बदलता पौद्गलिक गुणों में से एक भी गुरण नहीं हैं। इसलिए रहता है। किन्तु चेतना की दृष्टि से न वह मरता है प्रांत्मा मूर्त नहीं, अपितु अमूर्त है। तो भी अनादिकाल और न जन्मधारण करता है। शरीर की अपेक्षा वह से कर्मों से बंधा हा होने कारण व्यवहार दृष्टि से भौतिक होने पर भी प्रात्मा की अपेक्षा वह अभौतिक उसे मूर्त भी कहा जा सकता है। इस प्रकार आत्मा को है । जीव को व्यवहार नय और निश्चयनय की अपेक्षा कथंचित अमूर्त और कथंचित् मूर्त भी कह सकते हैं। कथंचित भौतिकता और कथंचित अभौतिकता मानकर अर्थात शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा वह प्रमूर्त और कर्मबंध जैन दर्शन इस विशेषण के द्वारा चार्वाक आदि के साथ
रूप पर्याय की अपेक्षा मूर्त है । यदि उसे सर्वथा मूर्त ही समन्वय करने की क्षमता रखता है । यही उसके स्याद्वाद माना जाय तो उसके भिन्न अस्तित्व का ही लोप हो की विशेषता है।
जाय तथा पुद्गल और उसमें कोई भिन्नता ही नहीं आत्मा का दूसरा विशेषण उपयोगमय है । आत्मा रहे। जैन दर्शन की यह समन्वय दृष्टि उसे दोनों उपयोगमय है, अर्थात ज्ञानदर्शनात्मक है । यह विशेषण मानती है और यही तर्क सिद्ध भी है। नैयायिक एवं वैशेषिक दर्शन को लक्ष्य करके कहा गया प्रात्मा का चौथा विशेषण है:-कर्ता । यह है। यह दोनों दर्शन प्रात्मा को ज्ञान का आधार मानते।
विशेषण उसे सांख्य दर्शन को लक्ष्य करके दिया हैं । जैन दर्शन भी प्रात्मा को प्राधार और ज्ञान को गया है। उसका प्राधेय मानता है ।
यह दर्शन प्रात्मा को कर्त्ता नहीं मानता । उसे प्रात्मा गुणी और ज्ञान उसका गुण है । गुण गुणी केवल भोक्ता मानता है । कर्तृत्व तो केवल प्रकृति में में आधार प्राधेय भाव होता है । जब प्रखण्ड प्रात्मा है, किन्तु जैन दर्शन सांख्य के इस अभिमत से सहमत में उसके गुणों की दृष्टि से भेद कल्पना की जाती है नहीं है। बल्कि उसका कहना है कि आत्मा व्यवहारतब आत्मा को ज्ञानाधिकरण माना जाना युक्ति संगत नय से पुद्गल कर्मों एवं घटघटादि पदार्थों का अशुद्ध है। किन्तु यह मानना कथंचित है । और इसी लिए निश्चयनय से चेतन कर्मों (रागद्वेषादि) का और शुद्ध एक दूसरी दृष्टि भी है जिससे आत्मा का ज्ञानाधिकरण निश्चयनय से अपने ज्ञान दर्शनादि शुद्ध भावों का कर्ता नहीं, किन्तु ज्ञानात्मक मानना ही अधिक युक्ति संगत है। इस प्रकार वह एक दृष्टि से कर्ता और दूसरी दृष्टि से है । प्रश्न यह है कि क्या आत्मा को कभी ज्ञान से अकर्ता है । यदि प्रात्मा को कर्ता न माना जाय तो उसे अलग किया जा सकता है ? प्रात्मा और ज्ञान जब भोक्ता भी कैसे माना जा सकता है । वस्तुतः कतत्व और किसी भी अवस्था में भिन्न नहीं हो सकते तब उसे ज्ञान भोक्त्तत्व का कोई विरोध नहीं है। यदि इन दोनों में का प्राश्रय मानने का आधार क्या है ? आधाराधेय भाव विरोध माना जाय तब तो प्रात्मा को 'भुजि' क्रिया का तो उन में होता है जो भिन्न भिन्न हों जैसे दुध और कर्ता भी कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि भोगने की
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