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का कभी नाश नहीं होता । उसका केवल रूपान्तर होता अादि जैना जैन महान दार्शनिक सत के विनाश है। पदार्थ पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय ग्रहण का और असत् के उत्पाद का स्पष्ट विरोध करते हैं। कर लेता है। कर्म पुद्गल कर्मत्व पर्याय को छोड़कर जैसे साबुन प्रादि फेनिल पदार्थों से धोने पर कपड़े का दूसरी पर्याय धारण कर लेते हैं। उनके विनाश का मेल नष्ट हो जाता है अर्थात् दूर हो जाता है, वैसे ही यही अर्थ है :
मात्मा से कर्म दूर हो जाते हैं। यही कर्मनाश कर्ममूक्ति "सतो नात्यन्तसंक्षयः" (प्राप्त परीक्षा)
अथवा कर्मभेदन का अर्थ है । जैसे प्राग में तपाने की "नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सतः” (गीता) विशिष्ट प्रक्रिया से सोने का विजातीय पदार्थ उसने "नेवासत्तो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गल पृथक हो जाता है वैसे ही तपस्या से कर्म दूर हो भावतोऽस्ति' (स्वयंभूस्तोत्र)
जाता है।
चरिणहिं कत्थमाणो सगुणं सगुणेसु सोभदे सगुणो।
वायाए वि कहिंतो अगुणो व जणस्मि अगुणम्मि ।। गुणवान आदमी गुणवालों में अपने गुण को अपने कार्यों से ही प्रकट करता हुआ शोभा को प्राप्त होता है जैसे गुणहीन गुणरहित लोगों में वचनों से अपनी प्रशंसा करता हुआ।
जाव न जरकंडपूयणि सव्वंगयं गसइ । जाब न रोयभुयंगु उग्गु निदउ उसइ ॥ ताव धम्मि मणु दिज्जउ किज्जउ अप्पहिउ ।
अज्ज कि कल्लि पयाणउ जिउ निच्चप्पहिउ । जब तक जरारूपी राक्षसी सारे शरीर के अंगों को न ग्रस ले और जब तक उग्र एवं निर्दय रोगरूपी भुजंग न डसले तबतक (उसके पहले ही) धर्म में मन लग
और आत्मा का हित करो क्योंकि आज या कल जीव को निश्चय ही प्रयाण करना पड़ेगा।
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