Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1964
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 161
________________ १३२ द्रव्य 'प्रस्तिकाय' कहे जाते हैं । सत्ता के कारण वे को विभु माना है और वैष्णव दर्शनों ने उसे अरगु 'अस्ति' हैं तथा शरीर के समान विस्तार युक्त होने से स्वीकार किया है इन दोनों से भिन्न जैन दर्शन ने 'काय' हैं। ऐसे पांच द्रव्य माने गये हैं मध्यममार्ग स्वीकार किया है। जीव शरीरत्वच्छिन्न है। १-जीयास्तिकाय, २-पुद्गलास्तिकाय, ३-पाका- अन निवासस्थान शरार क पारमारणवाला ह । अपने निवासस्थान शरीर के परिमारणवाला है। वह हाथी शास्तिकाय, ४-धर्मास्तिकाय, ५-अधर्मास्तिकाय । के शरीर में हाथी के परिमाण बाला और चीटी के शरीर में चींटी के समान स्वल्प परिमाण वाला हैं। देश व्यापक (अस्तिकाय) द्रव्य प्रधानतः दो भेद प्रदीप के समान जीव संकोच विकासशील है। वह धाला है । १-जीव और अजीव । ये जीव सामान्यतः तत्वतः प्ररूपी है, इन्द्रियों से उसका ज्ञान नहीं हो सकता, दो तरह के होते हैं एक बद्ध तथा दूसरे मुक्त । बद्ध संसारी कहाते हैं। इनके अनेक भेद किए गए हैं। जो फिर भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तथा अनुमान से उसे जाना जीव किसी उद्देश्य को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान जा सकता है। पर जाने की शक्ति रखते हैं उन्हें त्रस कहा जाता है। बौद्ध दर्शन नैरात्म्यवादी दर्शन कहा जाता है फिर जो जीव ऐसी शक्ति से रहित हैं वे स्थाबर कहाते हैं। भी वह चेतनास्तित्व को तो मानना ही है। हां, अन्य संसारी जीव के चार अन्य भेद भी किए गये हैं। दर्शनों के समान उसने आत्मा को पृयक सत्तावान् पदार्थ १-नारक २-मनुष्य ३-तिर्यश्च ४-देव । स्थावर जीव । स्वीकार नहीं किया है। यह चेतनास्तित्व-प्रत्यक्ष गोचर सब से निःकृष्ट हैं ये मात्र स्पर्शनिय ही होते हैं। मानस प्रवृत्तियों का एक समूह है। इस समूह के अलावा जंगम जीवों में कुछ में दो, कुछ में तीन, कुछ में चार प्रात्मा की कोई सत्ता दिखाई नहीं देती। इस विषय में इन्द्रियां होती है। मनुष्य पशुपक्षी आदि उन्नत जीवों में बौद्ध दर्शन वर्तमान मनोवैज्ञानिकों के अभिमत के तुल्य पांचों इन्द्रियां पाई जाती हैं । है। बौद्ध प्रतिपादित यह चेतनास्तित्व नाम रूपात्मक चेतन द्रव्य जीव कहलाता है। चैतन्य जीव का है। इन्द्रियों के अनुभव से निरूपित पदार्थों की संज्ञारूप मामान्य लक्षण है। संसार के सभी जीवों में चैतन्य है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु एवं एतज्जन्य शरीर मिलता है। हर जीव स्वभावतः अनन्त ज्ञान, अनन्त रूप कहाता है, भारीपन तथा परिमारण रहित द्रव्य को दर्शन, अनन्त सामर्थ्य आदि गुणों से युक्त है। जीव के नाम कहते हैं । यह मन तथा मानसिक प्रवृत्तियों की संज्ञा इन स्वाभाविक गुणों पर अपने ही शुभाशुभ कर्मों का है। इसलिये यहां नामरूप से तात्पर्य शरीर व मन प्रावरण पड़ा रहता है । जब मात्र शुभ कार्यों के अनुष्ठान अर्थात् शारीरिक कार्य एवं मानसिक प्रवृत्तियां हैं । शरीर से यह प्रावरण तिरोहित हो जाता है तो जीव अपने के कार्य तथा मानसिक प्रवृत्तियों के समुच्चय से अलग उपयुक्त गुणों का साक्षात् करता है । जीव शुभ अशुभ प्रात्मा कुछ नहीं है। रूप एक है, पर नाम के चार भेद कर्मों का कर्ता और कर्म फलों का भोक्ता स्वयं ही है। -वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान । बौद्धों का तथाविश्व के प्रत्येक भाग में जीवों का अस्तित्व है। कथित 'आत्मा' रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान 'वस्तुओं का ज्ञाता, कर्मों का सम्पादक और सुखों का इन पञ्चस्कन्धों का एक पूञ्ज है। उसे आत्मा यह भोक्ता जीव ही है । वह दुःखों का सहने वाला है। वह नाम केवल व्यवहार के लिये दिया गया है। उसकी अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों का वास्तविक सत्ता कुछ नहीं है। पञ्च स्कन्धों का समूह. भी प्रकाशक है । वह नित्य होने पर भी परिणामी है। रूप यह व्यवहत प्रात्मा भी अनित्य है। त्रिपिटकों के वह शरीर से अलग है, चैतन्य की उपलब्धि जीव के अनुसार इसका कालिक सम्बन्ध दो क्षण तक भी नहीं अस्तित्व में प्रबल प्रमाण है। जैन दर्शन जीव को रहता । यह प्रतिक्षण परिणामी है। वह दीप शिखा मध्यम परिमाण वाला मानता है । वेदान्तियों ने जीव एवं जल प्रवाह के समान सनातनशील है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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