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न्याय वैशेषिक और योग में चेतनास्तित्व समान ही योग में भी उसे पुरुष नाम से अभिहित किया
न्याय दर्शन में-इच्छा, द्वेष प्रयत्न, सुख, दुःख गया है । पुरुष स्वभावतः शुद्ध, चेतन स्वरूप एवं दैहिक और ज्ञान प्रात्मा के सिंग-परिचायक बताये गये हैं। तथा मानसिक बन्धनों से रहित है। परन्तु वह प्रज्ञानामुक्त अवस्था में प्रात्मा में इन गुणों का अत्यन्ताभाव वस्था में चित्त से सम्बद्ध रहता है । यद्यपि चित्त प्रकृति होजाता है। न्याय के मत में मुक्ति में सुख का भी जन्य होने से अचेतन है, परन्तु पुरुष के प्रतिबिम्ब के प्रभाव होने के कारण प्रानन्द की उपलब्धि नहीं कारण वह चेतन के समान भासता है, पदार्थ के साथ होती । वेदान्त का मत इसके सर्वथा विपरीत है। सम्बन्ध होने के कारण चित्त ही वस्तु के स्वरूप को इसीलिये मुक्तावस्था में प्रात्मा में नित्य प्रानन्द को ग्रहण करता है, पुरुष को चित्त के परिवर्तनों के कारण मानने वाले श्री हर्ष ने अपने नैषधीय चरित में ही पदार्थ का ज्ञान होता है । पुरुष स्वतः अपरिणामी है नैयायिकों की मुक्ति की हंसी उड़ाते हए लिखा है- पर चित्त में प्रतिबिम्बित होने के कारण परिणामी प्रतीत मको यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । होता है। पुरुष चैतन्यात्मक होते हुए भी चैतन्य से गोतमं तमवेक्ष्येव यया वित्थ तथैव सः ।।
भिन्न नहीं है।
नैषध १७.७५॥ जैन तथा बौद्ध दर्शन में चेतनास्तित्व अर्थात् जिस सूत्रकार ने सच्ता पुरुषों के लिए जैन दर्शन में चेतनास्तित्व के विषय में ज्ञान प्राप्त ज्ञानसुखादि रहित शिलारूप प्राप्ति को जीवन का परम करने से पूर्व द्रव्य का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है । लक्ष्य बतला कर उपदेश दिया है, उनका अभिधान द्रव्य सत् है इस सत के विषय में विविध दर्शनों में 'गोतम' शब्दतः ही यथार्थ नहीं है अपितु अर्थतः भो पर्याप्त मतभेद है । वेदान्त में केवल ब्रह्म को ही सत् यथार्थ है । वह केवल गो-बैल न होकर गोतम-प्रति- माना गया है बौद्ध दर्शन सत् को निरन्वय क्षणिक शयेन गौ-अत्यधिक बैल है अर्थात् निरा मूढ । अर्थात् उत्पादन विनाशशील मानता है, सांख्य चेतन
न्याय में प्रात्मा को स्वतन्त्र स्वीकार किया है तथा (पुरुष ) रूप सत् पदार्थ को कूटस्थनित्य मानता है, उसे देह एवं इन्द्रियों से अलग एक नित्य स्यायी पदार्थ परन्तु अचेतन प्रकृतिरूप पदार्थ को परिणामिनित्य माना है।
मानता है । जैन दर्शन में इस सत् की व्याख्या एक वैशेषिक दर्शन में भी प्रात्मा के स्वरूप को करीब २
विशेष रूप से ही प्रस्तुत की गई हैं। उपर्युक्त प्रकार का ही स्वीकार किया है। वह शरीर जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । उसके मत में प्रत्येक तथा इन्द्रियों से तो पासार है ही अपितु मन से भी पदार्थ के दो अंश होते हैं, एक शाश्वत अंश, दूसरा पृयक है। अनुभव तथा स्मरण ये दोनों समानाधिकरण अशाश्वत अंश । शाश्वत अंश की वजह से विश्व की में विद्यमान रहते हैं, अतः प्रात्मा इन्द्रियादि से भिन्न है प्रत्येक वस्तु 'ध्रोव्यात्मक' अर्थात नित्य है तथा प्रशाश्वत और अनुभव तथा स्मरण का अधिकरण है। वेदान्त में ___ अंश के कारण वही वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् प्रात्मा को एक माना है, परलोक व्यवहार के अनुरोध उत्पत्ति तथा विनाशशील-अनित्य है । जैन दर्शन इस पर वैशेषिक में उसकी अनेकता स्वीकार की है। तरह हर वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त मानता है ।
महर्षि कणाद ने अहं प्रत्यक्ष रूप से प्रात्मा को इस द्रव्य के दो बड़े विभाग हैं । १-एक देश व्यापी प्रत्यक्ष माना है । वह न पागम प्रमाण से सिद्ध है और द्रव्य २-बह देश व्यापी द्रव्य । काल एक ही पदार्थ है न अनुभेद है । वह प्रत्यक्ष गम्य है ।
जो एक प्रदेश व्यापी माना जाता है। जगत् के अन्य योग दर्शन का अभिमत प्रात्मा के विषय में थोड़ा सभी पदार्थों में विस्तार पाया जाता है, इसलिये वे बहत अन्तर से साक्ष्य के साथ सम्बद्ध है। सांख्य के बहदेश व्यापी कहे जाते हैं। जैन दर्शन में विस्तार वाले
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