Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1964
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 158
________________ भारतीय दर्शनों में चेतनास्तित्व • प्राचार्य रमेशचन्द्र शास्त्री विद्यालंकार जयपुर विश्व के दो प्रमुख तत्व जड़ और चेतन पर प्रायः है। प्राचार्य शंकरने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बड़े ही - सभी पाश्चात्य एवं पूर्वीय दर्शनों में विभिन्न सुन्दर ढंग से किया है। विचार व्यक्त किए गये हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्रात्मातु प्रमाणादि व्यवहारा श्रयत्वात् प्रागेव सभी भारतीय दर्शनों ने जड़ से पृथक चेतनास्तित्व को प्रमाणादि व्यवहारात् सिध्यति । न चेदशस्य निराकरणं स्वीकार किया है, फिर चाहे उसका स्वरूप अथवा लक्षण संभवति । अागन्तुकं हि वस्तु निराक्रियते न स्वरूपम् । कुछ भी किया हो या नाम कोई भी रखा हो । प्रस्तुत नहि अग्ने रौष्व्यग्नि ना निराक्रियते । लेख में हम चेतन सत्ता के विषय में विभिन्न मतों के वेदान्त दर्शन शां. भा. २।३ (७)। विचार प्रदर्शित करना चाहते हैं। भिन्न २ दर्शनों में इस उद्धरण का भाव यह है कि प्रात्मा ही समस्त चेतन सत्ता के जो नाम हमें मिलते हैं उन में प्रात्मा, प्रमाण व्यवहार का पाश्रय है । प्रतः प्रमाण व्यवहार में जीव, जीवात्मा, पुरुष ये चार प्रमुख हैं । यद्यपि इस पूर्व प्रात्मा सिद्ध है। उसका निराकरण नहीं किया जा विषय के प्रतिपादन में नाम भेद का विशेष महत्व नहीं सकता । निराकरण आगन्तुक-बाहर से आने वाली वस्तु माना जाता । चेतनास्तित्त्व के निरूपण में भारतीय होला का होता है, स्वभाव का नहीं जैसे उष्णता का निराकरण । दर्शनों में वेदान्त दर्शन का अपना विशिष्ट स्थान है। अग्नि के द्वारा न अग्नि के द्वारा नही किया जा सकता । क्योकि वह उसका वेदान्त दर्शन में चेतनास्तित्व स्वभाव है। प्राज वेदान्त दर्शन के नामसे दर्शन शास्त्र में प्रत इस विषय में शंकर ने दूसरी जो बात कही है वह दर्शन-जिसे शांकर वेदान्त भी कहते हैं-का ही ग्रहण प्रायः । स है प्रत्येक व्यक्ति का प्रात्मा के अस्तित्व में अटल विश्वास । किया जाता है । यद्यपि वेदान्त का यही एकान्त अर्थ हर व्यक्ति यही विश्वास करता है कि ' मैं हं", "मैं नहीं नहीं है, फिर भी हम यहां उसी के मतानुसार प्रस्तुत हूं" ऐसा विश्वास किसी को भी नहीं होता। विषय का विवेचन करेंगे। सर्वो हि प्रात्मास्तित्वं प्रत्येति, न नाह्यस्मीति । यदि अद्वैत वेदान्त में प्रात्मा का प्रत्यय स्वयं सिद्ध है। नात्मत्व प्रसिद्धिःस्यात् सर्वोलोको नाह्य स्मीति प्रतीयाम् । उसे अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। संसार ब. सू. शा. भा. १३१३१॥ के समस्त व्यवहार अनुभव के आधार पर चलते हैं। जब प्रतः प्रात्मा के अस्तित्व में शंका करने का कोई हम किसी विषय का अनुभव करते हैं तो उस के साथ अवसर है ही नहीं। याग्यवल्क्य ने भी बहुत पहले यह विषयीमात्मा स्वयं सिद्ध रहता है। यदि हम आत्मा को कह दिया है। ज्ञानरूप से विषय के साथ उपलब्ध न करें तो निश्चय ही विज्ञातारमो केन विजानीयात्-बृह. २।४।१४। विषय का ज्ञान भी उपपादित नहीं किया जासकता । जो सब का ज्ञाता है उसे किस प्रमाण से जाना जाय । अनुभव के साथ साथ अनुभवकर्ता की सत्ता अवश्यंभावी सुरेश्वराचार्य ने भी कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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