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क्रिया के कर्ता को ही तो भोक्ता कहते है । इस प्रकार आत्मा के कर्तृत्व को स्वीकार न करने का पर्य है उसका भोक्तृत्व भी न मानना । इस लिए यदि उसे भोक्ता मानना है तो कर्त्ता भी जरूर मानना चाहिए । आत्मा का पांचवा विशेषरण है 'भोक्ता'। यह विशेषरण वौद्ध दर्शन को लक्ष्य करके कहा गया है। यह दर्शन क्षणिकवादि होने के कारण कर्ता घोर भोक्ता का ऐक्य मानने की स्थिति में नहीं है, किन्तु यदि मात्मा को कर्मफल का भोक्ता नहीं माना जाय तो कृतप्रणाश और प्रकृत के अभ्यागम का प्रसंग प्रावेगा अर्थात् जो कर्म करेगा उसे उसका फल प्राप्त न होकर उसे प्राप्त होगा जिसने कर्म नहीं किया है और इससे बहुत बड़ी प्रव्यवस्था हो जायगी । इस लिए आत्मा को अपने कर्मों के फल का भोक्ता अवश्य मानना चाहिए। हां यह बात अवश्य है कि ग्रात्मा सुख दुःख रूप पुद्गल कर्मों का भोका व्यवहार दृष्टि से है । निश्चय दृष्टि से तो वह अपने चेतन भावों का हो भोक्ता है, कर्मफल का भोक्ता नहीं है इसलिए वह कथंचित भोक्ता है, और कथंचित् अभोक्ता है।
आत्मा का छठा विशेषण 'स्वदेह परिमाण' हैं । इसका अर्थ है इस मात्मा को जितना बड़ा शरीर मिलता है उसीके अनुसार इसका परिमाण हो जाता है । यह विशेषरण नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, पौर सांख्य इन चार दर्शनों को लक्ष्य करके कहा गया है। क्योंकि ये चारों ही दर्शन प्रात्मा को व्यापक मानते हैं । यद्यपि उसका ज्ञान शरीरावच्छेदेन ( शरीर में ) ही होता है तो भी उसका परिमाण शरीर तक ही सीमित नहीं है वह सर्वव्यापक है। जैन दर्शन का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि प्रात्मा के प्रदेशों का दीपक के प्रकाश की तरह संकोच और विस्तार होता है । हाथी के शरीर में उसके प्रदेशों का विस्तार और चींटी के शरीर में संकोच हो जाता है । किन्तु यह बात समुद्धात दशा के प्रतिरिक्त समय की है। ( समुद्धात का पर्य है मूल शरीर को छोड़कर तेजसकारण शरीर के साथ ग्रात्मा के प्रदेशों का बाहर निकल जाना), समुद्धात में तो उसके प्रदेश शरीर के बाहर भी फैल
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जाते हैं। यहां तक कि वे सारे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि श्रात्मा स्वशरीर परिमाण वाला व्यवहार नय से है। निश्चय नय से तो वह लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेशी है अर्थात् लीक के बराबर बड़ा है। यही कारण है कि वह लोक पूरण समुद्धात में सारे लोक में फैल जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन मात्मा को कथंचित् व्यापक और कथंचित् ग्रव्यापक मानता है और उक्त चारों दार्शनिकों के साथ इसका समन्वय हो जाता है। आत्मा का सातवां विशेषण है 'संसारस्य' यह विशेषरण 'सदाशिव' दर्शन को लक्ष्य करके कहा गया है । इसका अर्थ है श्रात्मा कभी संसारी नहीं होता, वह
हमेशा ही शुद्ध बना रहता है। कर्मों का उस पर कोई असर ही नहीं होता, कर्म उसके हैं ही नहीं, इस सम्बन्ध में जैन दर्शन का दृष्टिकोण यह है कि हर एक जीव संसारी होकर मुक्त होता है । पहिले उसका संसारी होना जरूरी है । संसारी जीव शुक्ल ध्यान के बल से कर्मों का संवर, निर्जरा और पूर्ण क्षय करके मुक्त होता है । संसारीका अर्थ है अशुद्ध जीव । अनादि काल से जीव अशुद्ध है और वह अपने पुरुषार्थ से शुद्ध होता है । यदि पहिले जीव संसारी न हो तो उसे मुक्ति के लिए कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता ही नहीं है । किन्तु जैन दर्शन का यह भी कहना है कि जीव को संसारस्थ कहना व्यवहारिक दृष्टिकोण है शुद्ध नय से तो सभी भव शुद्ध हैं। इस प्रकार जैन दर्शन जीव को एक नय से विकारी मानकर भी दूसरी नय से अधिकारी मान लेता है । यह जैन दर्शन का समन्वयात्मक दृष्टिकोण है ।
श्रात्मा का आठवां विशेषरण है 'सिद्ध' इसका अर्थ है ज्ञानावरणादि प्राठ कर्मों से रहित । यह विशेषरण भट्ट और नाक को लक्ष्य करके दिया गया है। भट्ट मुक्ति को स्वीकार नहीं करता । उसके मत में आत्मा का प्रतिम आदर्श स्वर्ग है । जो मुक्ति को स्वीकार नहीं करता वह आत्मा का सिद्ध विशेषरण कैसे मान सकता है ? उसके मत में आत्मा सदा संसारी ही रहता है, उसकी मुक्ति कभी होती ही नहीं अर्थात मुक्ति नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है । चार्वाक तो जब जीव की सत्ता ही नहीं
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