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कोने २ में, हर युग में ऐसी महान श्रात्मानों ने जन्म लिया, जिन्होंने कि ग्राज तक भारतीय प्राध्यात्मवाद की पूँजी को न ही केवल सुरक्षित रखा है, अपितु उन्होंने एक समन्वित प्रादर्श जीवन व्यतीत करके प्रमाणित किया है कि व्यावहारिक जीवन में श्राध्यात्मिक मूल्यों को लागू किया जा सकता है । भारतीय अध्यात्मवाद की यह अद्वितीय प्रगति और पश्चिमीय भौतिकवाद द्वारा उत्पन्न प्रसीम शक्ति का सुन्दर समन्वय और सामंजस्प मानव समाज के कल्याण का एकमात्र साधन प्रमाणित हो सकते हैं । मूल्यों का सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक वर्गीकरण यह नहीं बताता कि सद्गुरण अथवा मूल्य, मूल रूप से किसी प्रकार की विभिन्नता उत्पन्न करता है । इसके विपरीत सद्गुण विभिन्न होते हुए भी सामूहिक व्यवहार उत्पन्न करते हैं और यही समरूपता चरित्र निर्माण का दूसरा नाम है ।
यदि हम प्राचीनकाल के लोगों के व्यवहार पर दृष्टि डालें, तो हम यह अनुभव करेंगे कि वे भी शक्ति, वीरता, विश्वासपात्रता, सत्यपरायणता दि मूल्यों की सराहना इसलिए करते थे कि ये मूल्य स्वलक्ष्य सद्गुण हैं और चरित्र निर्माण की आधार शिला हैं । इसलिए ऐसे सद्गुणों को चरित्र सम्बन्धी मूल्य भी कहा जाता है | ये चरित्र सम्बन्धी मूल्य एवं सद्गुण उन लोगों को प्रत्यक्ष तुष्टि प्रदान करते हैं जिनमें कि ये मूल्य उपस्थित होते हैं । न ही केवल इतना, अपितु जो व्यक्ति चरित्र सम्बन्धी मूल्यों को दूसरों में उपस्थित देखता है, वह भी आनन्दित होता है और तुष्टि का अनुभव करता है । इस आनन्द का कारण यह है कि ये सद्गुण स्वलक्ष्य होते हैं । जिस प्रकार कि हम किसी कलाकार की दक्षता की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि उसकी कला में स्वलक्ष्य मूल्य है, इसी प्रकार हम पौरुषयुक्त साहस तथा श्रात्मत्याग की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि वह सद्गुण कला की भांति स्वलक्ष्य होता है । ऐसा करते समय हम उन परिणामों की ओर ध्यान नहीं देते, जो उस सद्गुण द्वारा प्रेरित कर्म की उत्पत्ति होते हैं । इसलिए चरित्र की उत्कृष्टता को हो सदगुणों के विकास का आत्मिक लक्ष्य स्वीकार किया जाता है । दूसरे शब्दों में सद्गुणों
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का नैतिक मूल्य केवल इतना है कि वे नैतिक दृष्टि से मनुष्य के चरित्र का मूल्यांकन करने में सहायता देते हैं ।
कुछ लोग सद्गुरण की स्वलक्ष्यता का विरोध करते और कहते हैं कि सद्गुणों का अनुसरण करना निरर्थक है । उदाहरणस्वरूप, विश्वयुद्ध के दौरान एक राजनीतिज्ञ ने यह घोषणा की थी कि युद्ध की विजय पहले ही प्राप्त हो चुकी है और कि उन मनुष्यों के नैतिक गुणों में उसकी संगतता प्रमाणित हो चुकी है जो एक लक्ष के लिए युद्ध कर रहे हैं । इस प्रकार की घोषणाएं सन्देह उत्पन्न करने वाली होती हैं, क्योंकि ज्यों २ युद्ध का समय व्यतीत हुआ, यह स्पष्ट होगया कि ऐसी घोषणा सद्गुरणों की भ्रान्त अभिव्यक्ति थी । किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि चरित्र स्वलक्ष्य नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि धैर्य, माता पिता का ग्रात्म त्याग, साहस तथा युद्ध में नागरिकों की विश्वासपात्रता ऐसे सद्गुरण हैं जो कि जीवन के लिए निमित्त मूल्य हैं । क्योंकि नैतिक नियम जीवन के लिए होते हैं और जीवन नैतिक नियमों के लिए नहीं होता, इसलिए हम कह सकते हैं कि सद्गुरण जीवन के लिए अस्तित्व रखता है न कि जीवन सद्गुरण के लिए । यदि हम सद्गुणों का गम्भीर विश्लेषण करें, तो हम इस परिणाम पर पहुंचेंगे कि इनकी उत्पत्ति और इनको आदर्श स्वीकार करने का कारण सार्वजनिक प्रवृत्ति को निरपेक्ष मूल्य स्वीकार करना है । यह सार्वजनिक वृत्ति मनुष्य के नैतिक स्वभाव पर हो प्राश्रित है । प्रतः सद्गुणों का महत्त्व यही है। कि वे नैतिक मूल्यांकन का मुख्य साधन
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जिस व्यक्ति में सद्गुण स्वभाव में परिवर्तित हो जाते हैं, वह बिना किसी बाहरी प्रदेश के सद्व्यवहार पर चलने वाला हो जाता है । अब प्रश्न यह होता है कि किस प्रकार से किसी व्यक्ति में सद्गुणों को स्वभाव में परिवर्तित किया जाय। इस प्रश्न का उत्तर देना अत्यन्त कठिन है । इसका कारण यह है कि स कोई सैद्धान्तिक धारणा न होकर एक ऐसा तत्त्व है जो वास्तविक जीवन से सम्बन्ध रखता है । सद्गुण का ज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है, किन्तु केवल ज्ञान ही सद्करण को किसी व्यक्ति में विकसित नहीं कर
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