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अहिंसा के नकारात्मक पहलू के बजाय प्रेम के विधेयात्मक जीवन के इस पहलू को जितना प्रभावपूर्ण और प्रबल पहलू को बल मिला । युद्ध का निषेध जो भारतीय बनाना चाहिये था संभवत- नहीं बना पाया। संस्कृतियों में शायद ही कहीं मिलता हो, ईसाई-संस्कृति गांधीजी ने अहिंसा के व्यक्तिगत और सामाजिक, में विशेष रूप से किया गया। अपराधों के कारण दी प्राध्यात्मिक और भौतिक पहलों का समन्वय और जाने वाली सजानों पर विचार गंभीरता से हुमा । फांसी
संतुलन करने का प्रयत्न किया और इसके साथ ही की सजा किसी व्यक्ति को न दी जाय यह प्रांदोलन पश्चिम के अहिंसा-विचार का ही परिणाम है।
लाने की कोशिश की । विनोबाजी प्रात्मज्ञान और युद्ध-विरोध, निःशस्त्रीकरण-तलवारों को हल के विज्ञान के समन्वय की चर्चा करते हैं और ऐसा मानते फालों में बदल दिया जाय-ईसा मसीह की इस हैं कि भविष्य में प्राध्यात्म और विज्ञान से ही दो महान् कल्पना के मूल में है। यह प्रान्दोलन पश्चिम में ही विचार शक्तियां रहने वाली हैं जो मानव को तारक पनपा और बढा । यद्धों में मानव-समूहों को जो अपमान या मारक सिद्ध होंगी। यदि ये दोनों मिल कर चलेंगी और कष्ट सहने पड़े, अन्याय और निर्दयता पूर्वक तो दुनियां इस धरती पर स्वर्ग बन सकेगी और ये दोनों इंसानों को मौत के घाट उतारा जाता हैं, जो अत्याचार एक दूसरे के विपरीत गई तो धरती पर से मानव-जाति स्त्री-बालकों पर होते हैं, उनका गहरा प्रभाव पश्चिम के का या शायद प्राणिमात्र का ही सफाया हो सकता है। विचारकों पर पड़ा है और उसी में से युद्ध-विरोध का विज्ञान के संहारक विकास और विस्तार ने अहिंसा और वितन और प्रयोग निकले हैं और सारी नयां में फैले आध्यात्मिकता के सामने यह चुनौती रखी है विशेष रूप हैं। रोग के उपचारों में रोगी को कष्ट कम से कम किस से उनके सामने जो इनमें प्रास्था रखते हैं और इन पर प्रकार हो यह चिंता और उसके परिणाम स्वरूप होने
गर्व करते हैं। वाले प्राविष्कार पश्चिम से प्रवाहित होने वाली अहिंसा आवश्यकता इस बात की है कि दुनियां के विभिन्न की एक धारा है।
भागों में प्राचीन तथा मध्यकाल में अहिंसा के संबंध में
जो चिंतन और प्राचरण हुआ है उनका व्यापक दृष्टि से इस विचार की अन्य दिशा मानव-समाज की
तुलनात्मक अध्ययन किया जाय और आधुनिक काम में व्यवस्था और संगठन का चिंतन इस दृष्टि में है जिससे
जो चिंतन तथा प्रयोग चल रहे हैं उनकी जानकारी की मानव की गरीबी, विषमता और कष्ट में कमी हो सके,
जाय तथा कराई जाय । यह काम देश-विदेश अहिंसा सारे मानव अलग-अलग और कुल मिला कर अधिक
तथा शांति के शोध-संस्थानों को करना चाहिये। इस के सुखी, ज्ञानवान दीर्घजीवी और प्रसन्न हो सकें । भौतिक 1 और प्रसन्न हो सके । भौतिक साथ ही दुनियां में आज अनेक देशों में चलने वाले
, दृष्टि से अहिंसा के इस पहलू का विचार पश्चिम में अहिंसा तथा शांति के प्रांदोलनों को बल देना चाहिये । हा है। भारत में तथा पूर्व के देशों में मानवीय सुख ऐसा करने से ही वर्तमान प्ररणुयुग में अहिंसा की शक्तियों का प्राध्यात्मिक और प्रास्तिक दृष्टिकोण से किया गया को बल मिलेगा और प्राध्यात्मिकता तथा विज्ञान का है। यद्यपि उसमें अगले जन्म, और मृत्यु के पश्चात् समन्वय हो सकेगा। संसार का भविष्य इसी समन्वय प्राप्त होने वाले स्वर्ग और मोक्ष के विचारने वर्तमान पर निर्भर है।
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