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यदि उसके अवगुणों पर ही ध्यान दिया गया और भगवान ने अपने 'पतितोद्धारन' विरद की रक्षा स्वयं न की तो भक्त का निस्तार होना असंभव है। "अधम-उधारक प्रगट जगत में सुनियो नाम तिहारो। मो गुन पौगुन परि नहिं जइये अपनो विरद संभारो॥" (पद संग्रह ४६२, पत्र १८७ वधीचंद मंदिर जयपुर)
ऐसा निवेदन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भक्त को बड़ा निर्भीक एवं प्राशा से सम्पन्न बना देता है। कभी कभी तो स्थिति यह होजाती है कि भक्त भगवान को व्यंगोक्ति में बुरा भला भी कह देता है, सखा-भाव की यह अभिव्यंजना प्रायः सभी ऊंचे भक्तों में पाई जाती है।
नवल जैसे भक्त में उपरोक्त सभी गुण विद्यमान हैं । यद्यपि कवि की भाषा प्रधानतया ब्रजभाषा हैं जिसमें कहीं कहीं थोड़ा सा ढूढाड़ी का भी मिश्रण होगया है परन्तु साथ ही साथ उनकी भाषा में कई वोलियों के उदाहरण मिलते हैं । खड़ी बोली में वह कहते हैं"मुझे है चाव दर्शन का निहारोगे तो क्या होगा? सुनो तुम नाभि के नंदन! परम सुख देन जगवंदन ! मेरी विनती अपावन की, विचारोगे तो क्या होगा? फंसा हूं कर्म के फंदे, मुझे तुम क्यों छुड़ावो ना, तुम्ही दातार हो जगके सुधारोगे तो क्या होगा?
प्ररज सुन लीजिये मेरी करू विनती प्रभु! तुम से, नवल को जग के दुखों से छुड़ा दोगे तो क्या होगा? एक दूसरा उदाहरण उनका रेख्ता भाषा का देखिये"नित मूरति तेरी प्रान विलोकू भाइया हो मैनू, तेरे देखन दी अभिलाषा नित चहन्दा होहे मेरा मना,
नहिं भूल्यू रयन दिन तेनू । जिया जिन विन अति अकुलानो ।
नहीं रहन्दा हो इकहु छिना,
- जिन देखा मिटत अचैन। सून लीजिए अरज कर छा
यह अचल वास शिवदा मिले: ..
ये नवल कहै मोहे देनू॥ -प्राचीन जैन भजन संग्रह, भजन ४२ उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि भक्ति परक कविता केवल वैष्णव कवियों की ही बपौती नहीं है। जैन धर्मावलम्वियों ने भी भक्ति भाव से अपने आराध्य का स्तवन किया है और उनकी कविता में भगवान के प्रति अलौकिक अनुराग, असीम श्रद्धा एवं अतुल विश्वास कूट कूट कर भरा हुप्रा व्यं जित हुआ है । नवल भी एक ऐसे ही कवि थे। हिन्दी साहित्य में उनका सहित्य अपने स्थान का अधिकारी है।
महावीर वाणी कोहो पीइ पणमेइ, माणो विषय नासणो।
माया भित्ताणि नासेइ, लोभो सय विणासणो । क्रोध भीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है । माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश करता है।
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