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प्राविष्कारों द्वारा भौतिक सुखों की वृद्धि की लालसा का प्रस्तु ऐसे व्यक्ति जो समाज के उत्पादन का भाग तो भी विरोधी है। महात्मा गांधी के शब्दों में "सच्चे लेना चाहते हैं परन्त उसके उत्पादन श्रम में हिस्सा सुधार, सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं बटाना नहीं चाहते. समाज के लिए भार रूप हो जाते है, बल्कि उसका विचार और इच्छापूर्वक घटाना है। हैं। जब तक उनकी संख्या अल्प रहती है तब तक ज्यों ज्यों परिग्रह. घटाइये त्यों त्यों सच्चा सुख और उनकी पोर उपेक्षा रहती है परन्तु जब उनकी तथा ऐसे सच्चा संतोष बढ़ता है।" "मात्मा की दृष्टि से विचार अन्य व्यक्तियों की भी जो भोगोपभोग वस्तुनों के उत्पादन करने से तो शरीर भी परिग्रह है। भोगेच्छा से हमने में श्रम तो नहीं या नगण्य सा करते हैं परन्तु लेना अधिक शरीर का प्रावरण खड़ा किया है और उसे कायम रखते से अधिक चाहते हैं। समाज में संख्या बढ़ जाती है कि हैं। भोगेच्छा प्रत्यंत. क्षीण होजाय तो शरीर की कुल उत्पादन सबके लिए पर्याप्त नहीं होता या उसके आवश्यकता मिट जाय, मनुष्य को नया शरीर धारण वितरण में विषमता बढ़ जाती है, समाज में उनका करने को न रहजाय ।" इससे यह बात स्पष्ट है कि विरोध शुरू हो जाता है। ऐसी ही परिस्थिति का अपरिग्रहवाद का लक्ष्य व्यक्ति है, समाज नहीं (वैसे वह परिणाम राज्य व्यवस्था है और समाजवाद उसका परोक्ष रूप से समाज का भी सुख वर्धन करता है कि प्राधुनिक रूप है। यदि प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अपनी अपनी आवश्य- समाजवाद का लक्ष्य समाज है। राज्य सत्ता को कतामों को कम से कम करदे और धन का पानावश्यक
हाथ में लेकर, सम्पूर्ण समाज ( जिसमें प्रत्येक व्यक्ति संग्रह न करे तो किसी को तंगी न पड़े और सबको शामिल है ) के भौतिक सुख की वृद्धि के लिए प्रत्येक संतोष रहे)। आध्यात्मिक सुख है, भौतिक सुख नहीं और व्यक्ति से काम कराना और उत्सादन का समाज में इस प्रत्येक व्यक्ति से अपनी प्रात्मा को ऊँचा उठाने के लिए प्रकार वितरण कराना कि सब सुखी हों, उसका ध्येय ही बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व अर्थात् बाह्य पदार्थों के है। जहां अपरिग्रहवाद व्यक्ति की बाह्य तथा मन की परिग्रह का त्याग कराना चाहता है । अपरिग्रहवाद क्रिया (दोनों) के नियमन पर जोर देता है, समाजवाद भोगोपभोग के पदार्थों के संग्रह का और वैयक्तिक संपत्ति केवल बाह्य क्रिया का ही नियमन करता है, मनकी का विरोधी ही नहीं, प्रादर्श के रूप में उनकी आवश्य- क्रिया पर नियमन उसके लिए संभव भी नहीं है । अस्तु कता को इतनी सीमित कर देना चाहता है कि व्यक्ति जो अपरिग्रहवादी है वह समाजवादी भी अवश्य है परन्तु स्वाद का विचार किये बिना केवल इतना सा जिससे जो समाजवादी है उसका अपरिग्रहवादी होना निश्चित शरीर कायम रह सके भोजन मात्र लेकर अपने आपको नहीं है। परिणामस्रूप, समाजवादी राज्य व्यवस्था का अत्यंत सुखी अनुभव करे, वस्त्र की भी उसे आवश्यकता आदर्श ऊंचा होते हुए भी उसमें भी निम्न प्रकार के न रहे और यह सब स्वेच्छापूर्वक ( किसी के दबाव से दोष पैदा होजाते हैंनहीं) कराना चाहता है क्योंकि दूसरों के दबाव से १. मार्कस के प्रसार व्यक्ति समाज का एक करने पर व्यक्ति अपने आप को सुखी अनुभव नहीं कर
कलपुरजा मात्र है, उसका कोई स्वतंत्र महत्व नहीं है। सकता। परन्तु बाह्य पदार्थों से ममत्व केवल कह देने मात्र
उनकी दृष्टि में उत्तम उद्देश्य की पूर्ति के लिए अर्थात से नहीं छूट जाता, इसके लिए साधना करनी पड़ती है। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए यह आवश्यक बहुधा व्यक्ति ऐसा किये बिना और इसके सिद्धांत को
नहीं है कि उत्तम व न्यायानुमोदित उपायों का ही पूर्णतया समझे बिना अपरिग्रहवादी होने की विडंबना। प्रयोग किया जावे प्रत्युत किसी भी प्रकार के छल, कपट, करने लगजाता है। शरीर में ममत्व बनाये रखता है, झूठ और हिंसात्मक उपायों के प्रयोग का उनने अनुमोअच्छे से अच्छे सुस्वादु और पौष्टिक भोजन करना दन किया है। अस्तु रूस और चीन में राज्यसत्ता को चाहता है परन्तु उसके लिए श्रम नहीं करना चाहता। हथियाने और पूंजीपति और जमींदार वर्गों की सम्पत्ति
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