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जैन अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व
• रामबल्लभ सोमानी
बी. ए., साहित्यरत्न जयपुर
कमबद्ध एवं प्रामाणिक इतिहास के लिए शिला लेखों को हराकर कृष्णानदी तक के भू-भाग पर अधिकार " का बड़ा महत्व है । इतिहास के रंगमंच पर कई किया, महाराष्ट्र के भोजकों को पराजित किया एवं मगध राजवंश प्राये एवं घूम केतु की तरह चमक कर विलीन को विजित किया । ' इस लेख की ७वीं और ८वीं भी हो गये। निश्चित प्रामाणिक सामग्री के प्रभाव में पंक्ति में बड़ी महत्वपूर्ण सूचना यह भी दी गई है कि उनका प्रब वर्णन प्रस्तुत करना अत्यन्त ही कठिन है। उसने यवन राजा दिमित को मध्यदेश से भगाया । एवं इस दिशा में शिलालेखादि सामग्री ही ऐसी हैं जिनसे इसी यवन राजा के भारत पाक्रमण सम्बन्धी उल्लेख यथेष्ठ सहायता ली जा सकती है। यद्यपि जैन शिला- पंतजलि के २ महा भाष्य, मालविकाग्निमित्र 3 एवं लेखों और ग्रंय प्रशस्तियों में प्रायः किसी राजवंश का गर्ग संहिता के युग पुराण ४ में भी है । लेकिन पतंजलि क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा रहता है किन्तु प्रासंगिक एवं कालीदासने राजा का नाम नहीं दिया है। युग वर्णन भी समसामयिक इतिहास के लिए बड़ा पुराण में इसको धर्ममीत कहा है जो अस्पष्ट है। महत्व का है।
इस लेख के मिलने के पूर्व यमन राजा मेनेन्डर जो प्राचीनतम जैन लेखों में उडीसा हाथी गुम्फा का
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"मिलिन्द नामक" पन्दो नामक बौद्ध ग्रंथ का नायक कलिंग चक्रवर्ती खारवेल का लेख बड़ा प्रसिद्ध है। यह भी है पाक्रान्ता माना जाता था किन्तु इस लेख के लेख समसामयिक इतिहास के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है। मिल जाने से भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण सूचना इसमें राजा खारवेल को दिग्विजय का भी उल्लेख है। प्राप्त हो गई है। इसके अतिरिक्त इस लेख और वीर इस लेख के अनुसार उसने सातवाहन राजा शातको संवत ८४५ के अजमेर के बड़ली के लेख से पता
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ८ अंग ३ पृ० ३०१ २. "अरुणद्यववः साकेतम्" ३. मालविकाग्निमित्र में कालीसिंधु के दक्षिणी तट पर यवनों से वसुमित्र का युद्ध होने का उल्लेख है।
दोनों घटनायें सम सामयिक हैं क्योंकि पतंजलि ने महा भाष्य में "पुष्यमित्रं याजयामः" कहकर
अपने को पुष्यमित्र का समकालीन बतलाया है । ४. धर्ममीत तमा वृद्धाजनं भोक्ष्यन्ति निर्भयाः । यवना क्षाप यिष्यति (नश्येरन) च पार्थिवाः । मध्यदेशे न स्थापयन्ति यवना युद्ध हर्मदा ।
तेषामन्योय संभावं भविष्यवि न संशय । -(कोशोत्कव संग्रह में जायसवाल का लेख) ५. वीर निर्वाण संवत और विक्रमी संवत के मध्य ४७० वर्ष का अन्तर है।
"विक्रमकालाज्जिनस्य वीरस्य कालो जिनकालः शून्वमुनिवेद युक्तः चत्वारिशतग्नि सतत्यधिक वर्षाणि श्री महावीर विक्रमादित्ययोरंतर मित्यर्थः । विचार श्रेणी-मेरुतुग सर्ग द्वारा विरचित ।
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