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तब द्रव्य से तप वह पर्याय अपने स्वरूप में सावधान हिंसा से बचने के लिये रक्षा मूलक शुभ विचार तथा (प्रप्रमत्त) होकर प्रवर्तित होती है और वस्तु की उस शुभाचार का निर्बल दशा में अंगीकार करना पड़ता है निर्विकारी द्रव्य से सहकृत निर्विकारी पर्याय को अहिंसा पर यह अंगीकार अनुपादेय दृष्टि पूर्वक छोड़ने के लिये कहते हैं और चैतन्य की वह पर्याय जो अपने शुद्ध स्वरूप ही होता है। से बिछुड़ कर पर की अपेक्षा करती है, अपने स्वरूप में
लोक में आज हिंसा और अहिंसा का स्वरूप केवल प्रसावधान होकर पर में युक्त होती है पर के संबंध में
बाह्याचार में ही संकुचित हो गया हैं, उसके मूलाधार रागद्वेषात्मक विविध विकल्प करती हैं, उस विकारी
आत्मा के परिणाम से मानों उसका संबंध ही टूट गया पर्याय को हिंसा कहते हैं। प्राचार्यों ने भी 'अप्रादुर्भावः
है । यह अविवेक की पराकाष्ठा है जो लोक में अनाचार खलरागादीनां भवत्यहिंसेति' रागादि के अप्रादुर्भाव को।
___ को प्रोत्साहित करती है। मनमें चाहे कितने ही निंद्य अहिंसा और उनकी उत्पत्ति को ही हिंसा कहा हैं।
पाप-मय विचार उत्पन्न हो किंतु यदि उनके साथ किसी प्रतएव चित् विकार ही हिंसा है और झूठ, चोरी आदि
प्राणी को पीड़ा नहीं हुई तो वह हिंसा नहीं मानी सभी में चित्-विकार का अविनाभाव होने के कारण वे ।
जाती। यह विचार न केवल जैन दर्शन वरन् समग्र सब हिंसा की ही पर्यायें हैं। किसी प्राणी के वध अथवा
भारतीय दर्शन के ही विपरीत है। किसी व्यक्ति को रक्षा के विकल्प को अर्थ क्रिया कारित्व प्रदान कर
हमारे मायाचार का पता न लगे और वह प्रपीड़ित न सकना जीव के अधिकार क्षेत्र के बाहर होने के कारण
हो तो हम हिंसक ही नहीं हैं । कोई व्यक्ति परिस्थिति वह विकल्प अशक्यानुष्ठान है अतएव चित्त-विकार है
की विवशता में अपनी वस्तु हमें अर्द्ध मूल्य में प्रस्तावित और हिंसा है, अतएव किसी प्राणी के वध और रक्षा करे तो अर्द्ध मूल्य में उसके क्रय जैसा निर्दय कृत्य करके का प्रहं छोंड कर विज्ञ पुरुष सभी प्रकार के विकल्पों से
भी हम अहिंसक ही बने रहते हैं। यदि परप्राण प्रतीत अपने शुद्ध स्वरूप में ही विश्राम करना श्रेयस्कर परिपीडन तक ही हिंसा की सीमा हो तो मुनि के गले समझते हैं और यही शुद्ध प्रात्मव्यवहार हैं।
में सर्प डालकर श्रेणिक सातवें नरक का कर्म क्यों . अहिंसा का यह स्वरूप स्थिर हो जाने पर पुनः उपार्जित करते ? मुनि को तो इस कृत्य से कोई पीड़ा पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसी प्राणी का वध तो नहीं हई थी। किसी के पैर का कांटां निकालने अथवा हिंसा है ही किन्तु यदि उसकी रक्षा का विचार भी शल्य-क्रिया करने में शरीर रूप द्रव्य प्राण का छेद भी हिसा है तो फिर दूसरे प्राणी की रक्षा का भद्र विचार होता है और भाव-प्राणों का पीड़न भी होता है पर प्रौर व्यवहार भी छोड़ देना चाहिये ? इसका समाधान शल्य कर्ता हिंसक तो नहीं कहलाते, किसी अंधे को पह है कि दोनों प्रकार के विफल विकल्पों का परित्याग पत्थर मारने पर यदि उसके नेत्र खुल जावें तो पत्थर करके यदि आत्म स्वरूप की उपलब्धि का अवसर हो मारने वाला अहिंसक तो नहीं है। न केवल चेतन वरन अब तो दोनों विकल्पों का परित्याग ही उपादेय है और किसी जड़ प्राकृति पर भी रोष की उत्पत्ति में हिंसा पडतो दोनों प्रकार के विकल्पों का परित्याग सहज हो अनिवार्य है। प्राज प्रात्म परिणाम शून्य कुछ निश्चित हो जाता है अन्यथा रक्षामूलक शुभ विचार का परित्याग शुभाचार नित्य करके हम 'धर्मात्मा' का ताज अपने करके वध मूलक अशुभ विचार में प्रवृत्ति करना युक्त शीश पर पहिन लेने का दंभ करते हैं किन्तु यह विस्मरनहीं है। जैसे औषधि अनुपा य होने पर भी उसे छोड़ णीय नहीं है कि जिस प्राचार के साथ विचार की कर रोग में प्रवृत्ति करना अच्छा नहीं होता । हां! तद्र पता नहीं है उसके फल में हमें शुभत्व की प्राशा प्रारोग्य लाभ के अवसर में औषधि का परित्याग अवश्य नहीं करनी चाहिये वरन् वहां अशुभ फल की ही उपादेय होता है । प्रतः 'विषस्य विष प्रौषधम्' के संभावनायें अधिक होती हैं । अत: जीवन को मुक्ति के पमान वध-मूलक प्रशुभ-विचार तथा प्रशुभाचार रूप प्रशस्त पथ पर अग्रसर करने के किये यह अनिवा
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