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वेदों में तीर्थंकरों की स्तुति
• मुनो श्री महेन्द्र कुमार
'प्रथम'
[ वेदों में ऋषभदेव, सुपार्श्व, अरिष्टनेमि, महावीर प्रादि तीर्थकरों का उल्लेख किया गया है । इसकी पुष्टि राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन्, डा० अलबेट बेबर, प्रो० विरुपाक्ष वाडियर, डा. विमला चरण लाहा प्रभृति विद्वज्जन भी करते हैं।
वेदों में अर्हन् ' तथा अर्हन्त २ शब्द का प्रयोग-बाहुल्य अरिष्टनेमि , महावीर५ आदि की नाम-ग्राहपूर्वक की
उस परम्परा की धर्म के प्रति विशेष भावना तो गई स्तुति तथा उन्हें अनिर्वचनीय पुरुष मानकर उनके व्यक्त करता ही है, साथ ही ऋषभदेव, सुपार्श्वनाथ उपदेशों पर चलने की प्रेरणा भी दी गई है। १. अर्हन विभिषि सायकानि धर्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा प्रोजीयो रुद्र त्वदस्ति ।।
-ऋग्वेद, मं० २, अ० ४, सू० ३३, वर्ग १० । २. क-इमंस्तोममहते जातदेवसेरथमिव संमहेमामनीषया । दाहिनः प्रमतिरस्यसंसद्यग्ने सख्ये मारिषाभावयं तव ।।
-ऋग्वेद, मं० १ ० १५ सू० ६४ ख-प्रहन्तो ये सुदानवो नरो असामि शवसः । प्रयजं यज्ञियेभ्यो दिवो अमिहद्भयः ।।
--ऋग्वेद, मं० ५ प्र० ४ सू० ५२ ग-तावृधन्तावनु घन्मर्ताय दैवावदभा। अर्हन्ताचित्सुरो दवे शेव देवावर्वते ।।
ऋग्वेद, मं०५ प्र० ६ ० ८६ घ-ईडितो अग्ने सनसानो अहन्देवान्यक्षि मानुषात्पूर्वो अद्य । स ग्रावह मरुतां शो अच्युतमिन्दं नरोबहिषदंयजध्वं ॥
ऋग्वेद, मं० २ अ० ११ सू० ३ ३. ऊ सुपार्श्वमिन्द्र हवै-यजुर्वेद ४. क-ऊं रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा-यजुर्वेद, अ० २६ ख-तवां रथं वयद्याहुवेमस्तो मेरश्विना सविताय नव्यं । अरिष्टनेमि परिद्यामियानं विद्यामेषं वृजनं जीरदानम् ।।
-ऋग्वेद, म. २ प्र. ४ व २४
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