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मन, वचन, काय, तीनों योगों से बद्ध (संयत) समस्त पापों से मुक्त, अहिंसक वृत्तियों के प्रथम वृषभ (ऋषभदेव) ने घोषणा की कि महादेव (परमात्मा) राजा, श्रादित्यस्वरूप श्री ऋषभदेव को में ग्राह्वान मयों में आवास करता है।
करता हूं। वे मुझे बुद्धि और इन्द्रियों के साथ बल उन्होंने अपनी साधना व तपस्या से मनुष्य-शरीर प्रदान कर । में रहते हुए उसे प्रमाणित भी कर दिखाया था, ऐसा ऋग्वेद में उन्हें स्तुति-योग्य बताते हुए कहा उल्लेख भी वेदों में है।
गया है। तन्मय॑स्य देवत्वमजानमगे ।
अनर्वाणं ऋषभं मन्द्रजिहवं, वृहस्पति वर्धया नव्यमर्के । -ऋग्वेद, ३१११७
--मं० १ मूत्र १६० मंत्र १ ऋषभ (वयं प्रादि पुरुष थे, जिन्होंने सबसे पहले
मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुति-योम ऋषभ को पूजा मर्त्य दशा में देवत्व की प्राप्ति की थी।
साधक मंत्रों द्वारा वर्धित करो । वे स्तोता को ऋषभदेव प्रेम के राजा के रूप में विख्यात थे। उन्होंने
नहीं छोड़ते। जिस शासन की स्थापना की थी, उसमें मनुष्य व पशु,
प्राग्नये वाचमीरय सभी समान थे । पशु भी मारे नहीं जाते थे ।
-ऋग्वेद, मं० १० सू० १८७ नास्य पशून समानान् हिनास्ति ।
अथर्ववेद तेजस्वी ऋषभ के लिए स्तुति प्रेरित करो। सब प्राणियों के प्रति इस मैत्री-भावना के कारण यजुर्वेद, अ० ३१ मंत्र ८ की एक स्तुति में कहा ही वे देवत्व के रूप में पूजे जाते थे ।।
गया है। ऋषभं मा समासानां सपत्मानां विषासहितम् । वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ग तमसः पुरस्तात् । हन्तारं शत्रणां कृषि विराज गोपितं गवाम् । तमेव निदित्वाति मृत्यु ति नान्य पन्था विधते यनाय । -ऋग्वेद, अ० ८ मं० सू० २४
मैंने उस महापुरुष को जाना है जो सूर्य के समान मुदगल ऋषि पर ऋषभदेव की वाणी के विलक्षण तेजस्वी, प्रज्ञानादि अंधकार से दूर है। उसी को जानकर प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा गया हैं।
मृत्यु से पार हुअा जा सकता है, मुक्ति के लिये अन्य ककर्दवे वृषभो युक्त पासीद् अवावचीत् सारथिरस्थ केशी। कोई मार्ग नहीं है। दधेय क्तस्यंद्रवतः सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदोमुद्गलानीम् यह स्तति और जैनाचार्य मानतग द्वारा की गई
---ऋग्वेद, १०।१०२।६ भगवान ऋषभदेव की स्तुति शब्द-साम्यता की दृष्टि से मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ विशेष ध्यान देने योग्य है। भक्तामर स्तोत्र में वे जो शत्रुनों का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी कहते है। वाणी निकली, जिसके फलस्वरुप जो मुद्गल ऋषि की
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमान्स गौवें (इन्द्रियां) जुते हए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड़ मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । रहीं थी वे निश्चल होकर मौद्गलानी मुद्गल की
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु। स्वात्मवृति) की ओर लौट पड़ी।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः । इसीलिए उन्हें पाह्वान करने की प्रेरणा दी गई है। हे ऋषभदेव भगवान् ! तुम्हें मुनिजन परम पुरुष अहोमुचं वृषभं यज्ञियानां विराजतं प्रथममध्वराणाम् । मानते हैं । तुम सूर्य के समान तेजस्वी, मल-रहित और अपां न पातमश्विनाहं वेधिय इन्द्रियेण इन्द्रियं दतमोजः । अज्ञान और अंधकार से दूर हो । तुम्हें भली-भांति जान
-अथर्ववेद, कां० १६४२।४ लेने पर ही मृत्यु पर विजय पाई जा सकती है। हे
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