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जैन धर्म और राज्य व्यवस्था
• रामावतार शर्मा, एम. ए.
राजनीति विभाग श्रमजीवी कॉलेज, उदयपुर
ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि का अवलोकन करने से स्पष्ट हो गया कि जैनधर्म ने राज्य व्यवस्था को अच्छी तरह प्रभावित किया है । जैन आचार्यों का यह क्रम रहा है कि वे सदैव से ही अपने ध्येय की सिद्धि करने के लिए शक्तिभर स्वयं भाग लेते हैं और अपने आस पास शक्तिशाली ( सम्प्रभू) लोगों की सत्ता का भी अधिक से अधिक उपयोग करते आए हैं । जो कार्य वे स्वयं सरलता से नहीं कर सकते उस कार्य की सिद्धि के लिए अपने अनुयायी या अनुयायी राजा, मंत्री और दूसरे अधिकारी तथा अन्य समर्थ लोगों का पूरा-पूरा उपयोग करते हैं।
विशाल संस्कृत साहित्य में यद्यपि सदियों से मौलिक की भी कमी नहीं है, बौद्ध और जैन साहित्य भी
' कृतियों की वृद्धि नहीं हुई तथापि ऐसा कोई भी राज्य व्यवस्था विषयक निर्देशों से शून्य नहीं है । विषय नहीं है जिसके तत्वों का प्राभास बीज रूप में
प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार राजशक्ति उपलब्ध नहीं होता । विज्ञान, कला, धर्म, दर्शन राजनीति
और धर्म एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी कभी नहीं रहे, अपितु और राज्य व्यवस्था सभी का वर्णन विविध रूपों में ।
एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं। इनका पारस्परिक सान्निध्य संस्कृत साहित्य में अतुल मात्रा में प्राप्त होता है।
इतना सघन था कि धर्मनीति और राजनीति एक भारतीय संस्कृति के इतिहास में राज्य से सम्बन्धित
दुसरी में घुली मिली दिखाई देती है। यहां के शासक ज्ञान का रूप लेकर कोई भिन्न शास्त्र नहीं रचा गया,
वर्ग ने धर्म को ही राज्य की आधारशिला माना है-फिर यह विषय विशुद्ध नीति विषयक ग्रन्थों के प्रतिरिक्त
क्यों न राज्य व्यवस्था धर्म द्वारा प्रभावित नहीं होती। प्रचीन भारतीय साहित्य के अन्य भी बहुत से ग्रन्थों से
भारत बहुत ही बड़ा देश है । कतिपय विदेशी विद्वान प्राप्त होता है जो धर्म के साथ ही साथ राज्य व्यवस्था
इसे उप महाद्वीप भी कहते हैं । यद्यपि इसकी भौगोलिक का भी प्रतिपादन करते हैं। प्रायः सभी स्मृति-ग्रन्थों में राजधर्म का भी समावेश है इसलिये मनु, याज्ञवल्क्य
धार्मिक और संस्कृतिक एकता से इन्कार नहीं किया जा
सकता। पर यह सत्य हैं कि राजनैतिक दृष्टि से इस देश आदि की स्मृतियाँ प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था के
में कभी अविकल रूप से एकता कायम नहीं रही । अनुशीलन के लिये बहुत ही उपयोगी हैं । धर्म सूत्रों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है-पुराण,
प्राचीन काल में भारत में बहुत से 'जनपद' थे जिनकी रामायण, काव्य ग्रन्थों में भी राज्य व्यवस्था विषयक संख्या सैकड़ों में थी। महाभारत, पाणिनि की अपाध्यायी अनेक निर्देश मिलते हैं। पुराण संख्या में अठारह हैं बौद्ध व जैन साहित्य प्रादि में भारत के बहत से जनपदों जिनमें प्राचीन इतिवृत्त संग्रहीत है वहाँ प्रसंगवश का उल्लेख है और यह बात शिलालेखों व सिक्कों से भी उनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सम्बन्धित संदर्भो विदित होती है।
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