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गद्य और पद्य काव्य, जैन सिद्धान्त दीपिका, भिक्षु उसके पश्चात् उसका स्वरूप धीरे-धीरे प्रांतीय भाषाओं न्याय-कणिका, युक्तिवाद, अन्यापदेश प्रादि दर्शन-ग्रन्थ, के रूप में ढलने लगता है। इसीलिए बारहवीं शती के शिक्षाषण्णवति, कर्त्तव्य षट्त्रिंशिका, मुकुलम्, उत्तिष्ठत! पश्चाद्वर्ती अपभ्रंश साहित्य को हिन्दी, मराठी, गुजजागृत !!, निबन्ध-निकुज आदि विभिन्न स्फुट नथ, राती आदि प्रान्तीय भाषाओं के आदि युगीन साहित्य शांतसुधारस टीका ग्रन्थ और समुच्चय जिनम्तुति, देवगुरु में गिन लिया जाता है। स्त्रोत्र, जिनस्तव, कालुभक्तामर, कालुकल्याण मन्दिर, अपभ्रश को प्रान्तीय भाषामों की जननी कहा तुलसी स्तोत्र आदि अनेक स्तोत्र ग्रन्थ गिनाए जा सकते जाता है। उसका प्रारम्भ छठी शती से हुआ और हैं। पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ द्वारा रचित जैनदर्शन- स्वल्पकाल में ही वह जन-साधारण की भाषा बन गई। सार, भावना विवेक, पावन प्रवाह संस्कृत की अच्छी ७-८ वीं शती में उसका प्रसार हिमालय की तराई से रचनाएँ हैं।
गोदावरी और सिंध से ब्रह्मपुत्रर्पयत हो गया था। यह अपभ्रंश भाषा
एक बहुत ही सजीव और भाव-प्रवण भाषा रही है। किसी समय प्राकृत भाषा लोकभाषा थी, पर। जैनाचार्यों ने इसमें स्तोत्र काव्य से लेकर चरित्र-काव्य, कालान्तर में उसका अध्ययन केवल व्याकरण की सहा- खण्ड काब्य और महाकाव्य तक लिखें हैं। यता से ही सुलभ रह गया था। विद्वानों की भाषा बन अपभ्रश का प्रथम जैन कवि जोइंदु (योगीदु) जाने पर जन साधारण तक पहुँचने के लिए उसका माना जाता है। उसका समय छटठी शताब्दी था। कोई विशेष उपयोग नहीं रह गया । जनता के उसके ग्रन्थ परमात्म प्रकाश और योगसार अपभ्रश कल्याणार्थ फिर तत्कालीन लोक भाषा का सहारा लेना भाषा के उत्कृष्ट कोटि वे ग्रन्थ माने जाते हैं। जोइंद् अावश्यक था । अपभ्रश के साहित्यकारों ने साहसपूर्वक
ने इन ग्रन्थों में दोहा छंद का प्रयोग किया है। यह वैसा करने का निश्चय किया। पण्डित समाज जैसे अपभ्रश का प्रमख छंद रहा है। जोइंद को इसका पहले प्राकृत को हेय दृष्टि से देखा करता था और उसे
एक सफल प्रयोक्ता कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त निम्न कोटि के मनुष्य की भाषा माना करता था, वैसे
गाहा, पत्ता, पद्धड़िया, चौपाई, दुवई, सर्गिणी पौर ही उस समय वह स्थिति अपभ्रश के लिए थी। पंडित त्रिभंगी प्रादि छंद अपभ्रंश के अपने मुख्य छंद रहे हैं । समाज संस्कृत और प्राकृत में लिखने वालों को प्रादर
___जोइंदु के पश्चात् ८-६वीं शताब्दी में स्वयंभू अपभ्रंश की दृष्टि से देखता था पर अपभ्रश के लेखकों का
के अतिश्रेष्ठ कवि हुए हैं । उन्होंने पउमचरिय (रामायण) उसकी दृष्टि में कोई आदरणीय स्थान नहीं था । वस्तुतः
और रिट्टणेमिचरिय महाकाव्य की रचना की थी। उनके अपभ्रश नाम भी उन्हीं पण्डितों का दिया हुआ है जो कि
पूत्र त्रिभुवन स्वयंभू भी श्रेष्ठ कवि थे । स्वयंभू को महाअनादर-सूचक ही हैं । जैन साहित्यकारों ने पंडितजनों
पंडित राहुल सांकृत्यायन ने विश्व का महाकवि माना की इस अनादर सूचक प्रवृत्ति की न तो प्राकृत को अपनाते
है। उनके मतानुसार तुलसी रामायण स्वयंभू रामायण समय कोई परवा की थी और न अपभ्रश को अपनाते
से बहुत प्रभावित रही है । स्वयंभू और उनकी रामायण समय ही । उन्होंने सदैव साहसपूर्वक जनभाषा को ।
के विषय में एक जगह वे लिखते हैं-"स्वयंभू कविराज आगे बढ़ाने में ही अपनी शक्ति को लगाया था।
कहे गए है किन्तु इतने से स्वयंभू की महत्ता को नहीं अपभ्रश के जैन-साहित्यकारों ने लोक कथाओं को
समझा जा सकता। मै समझता हूं-८वीं से लेकर अपने रंग में रंगकर अपने धार्मिक संस्कारों को जनसुलभ बनाने का सफल प्रयास किया है। यही कारण
२०वीं शती तक की १३ शताब्दियों में जितने कवियों है कि लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अपभ्रश-काव्य ने अपनी अमर कृतियों से हिन्दी-कविता-साहित्य को पूरा में बहुलता से प्राप्त होते हैं। अपभ्रंश भाषा का काल किया है, उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि हैं। मैं ऐसा ईश्वी छठी से सत्रहवीं शती तक का माना जाता है। लिखने की हिम्मत न करता, यदि हिन्दी के कुछ जीवित
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