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की नूतन विधाओं को ग्राचार्य को सूक्ष्म दृष्टि से विश्ले पण और विवेचन का विषय बनाया। हिन्दी और गुजराती के प्राचीन साहित्य का अधिकांश जैन कवियों की देन है। उन्हीं की परम्परा का विकास आगे चल कर इन दो भाषाओं के विशाल समुद्र का रूप ग्रहण
कर सका ।
मुगल काल में जैन परम्परा धौर उसका बल उसी प्रकार दब गया, जिस प्रकार अन्य धर्मों और सम्प्रदायों का। इसके पूर्व कि प्राधुनिक युग में जैन संस्कृति के योग दान की चर्चा की जाय इतिहास पर जिस विहंगम दृष्टि से विचार किया गया है उसके निष्कर्षो को प्रस्तुत कर देना आवश्यक है ।
(१) जैन धर्म कोई बाहर से माया धर्म नहीं था। उसका लक्ष्य वैदिक धर्म का सुधार था। ऋषभदेव और अरिष्टनेमि वैदिक ऋषियों में ही थे जो यज्ञीय ग्राडम्बरों से पृथक्, तप, साधना और सदाचार पर अधिक बल देते थे । वैदिक मन्त्रों का सृजन जिस वातावरण में हुआ था उस पर ऋषभदेव का प्रभाव या अनेक मन्त्र इस तथ्य की पुष्टि करते हैं ।
(२) मोहेनजोदड़ों से प्राप्त रेखा वित्रों से ऋषभदेव और वृषभदेव (शिव) की एकता सिद्ध करने में सहायता मिलेगी। क्योंकि आगे जब कुशन काल और बाद में तीर्थकरों पीर बाहुबली की मूर्तियां बनी तो उनमें प्रतीक पशु-पूर्तियां नहीं मिलती।
(३) तप, कृच्च साधना, वशाडम्बरों का विरोध, अहिंसा कार बल और गृहस्थ जीवन के सदाचारपूर्ण बनाने पर बल देने का कार्य जैन भ्रमणों के प्रयत्नों का फल है। उपनिषदों की विद्रोही भावना में नई पोढ़ी और जैन साधकों की समान भावना देखी जा सकती है।
(४) जैन संस्कृति समन्वयवादी रही है। दर्शन के क्षेत्र में भी पीर साधना तथा उपासना के क्षेत्र में भी स्यादवाद या मनेकान्तवाद के साथ-साथ गीता के अहिंसक यज्ञों की देन इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण के
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कारण संभव हो सको । भारतीय संस्कृति के प्रमुख मूल तत्वों में से यह एक है ।
(५) वैदिक और हिन्दू संस्कृति ने जैन तीर्थंकरों का सदा यादर किया मौर सामाजिक विकृतियों को दूर करने के लिए उनके द्वारा सुझाये गये सुधारों को सदा स्वीकार किया। ऋषभदेव की गणना अवतारों में की गई। जैन प्रतिवाद को कभी स्वीकार नहीं किया गया और बोद्ध धर्म इसकी प्रतिक्रिया का एक रूप था।
(६) जैन धर्म के सदाचार सम्बन्धी नियम भारतीय समाज के सर्वमान्य धर्म के दश लक्षण बन गये । भगवान् महावीर के उपदेश वैष्णवों को मान्य हो गये ।
(७) पुनर्जग्मवाद, कर्मफलवाद और संस्कारवाद पर बल देकर जैन संस्कृति ने जहां भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं में इन्हें शामिल करा दिया वहां मुक्ति के लिए तप साधना और सदाचार के साथ साथ संन्यास की आवश्यक प्रतिष्ठा कर दी ।
(८) अहिंसा पर प्रत्यधिक बल दिए जाने के कारण भारतीय संस्कृति अधिक मानवतावादी बन गई। नरबलि अश्वबलि भेड़ और मनावली अन्न और पुरोडाश की बलि के क्रमिक विकास में मानवता के विकास की कहानी छिपी हैं । दसवीं शताब्दी तक का जैन साहित्य अन्न और माटे के कुक्कुट की बलि का भी विरोध करता रहा है - यशस्तिलक, जसहरचारिउ प्रादि रचनायें देखी जा सकती हैं। प्रन्नवलि में भावनात्मक हिंसा है इसका विरोध होता रहा । भारतीय संस्कृति के इस मानवता बाद के उत्कर्ष और विकास में जैन मुनियों और उनकी संस्कृति का महत् योगदान है ।
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(६) संस्कृति मूलतः विचार और भावना जगत् की वस्तु हैं । इसके परिष्कार का सतत प्रयत्न जैन मुनियों ने किया है। इन विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति, साहित्य दर्शन, कला और सामाजिक आन्दोलनों में होती है। जैन साहित्य का भण्डार विशाल है | काव्य ओर साहित्य की अनेक धाराम्रों के प्रर्वतन, नवीकरण मौर प्रचलन का नेतृत्व जैन साहित्य ने किया है। भारतीय साहित्य को उसकी महान देन है। हिन्दी
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