________________
यह अहिंसा प्रधान जैनधर्म अधिक भी नहीं तो कम से कम उसका स्वतन्त्र अस्तित्त्व है।' प्रतएव यह बात प्रायः वेदों और वैदिक धर्म जितना प्राचीन अवश्य है' तो निस्संकोच कही जासकती है कि प्रागऐतिहासिक काल कुछ अन्य विद्वानों का कहना है कि "जैनों और उनके के प्रकृत्याश्रित पाषाण युग से ही-जब से भी भारतवर्ष धार्मिक साहित्य सम्बन्धी वर्तमान ज्ञान के आधार पर एवं भारतीयों का इतिवृत्ति किसी न किसी रूप में मिलना हमारे लिये यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नहीं है प्रारंभ हो जाता है तभी से उसके साथ वर्तमान में जिसे कि बौद्धधर्म अथवा वैदिक धर्म की शाखा होना तो दूर जैनधर्म और जैन संस्कृति के नाम से जाना जाता है की बात हैं, जैनधर्म निश्चयतः भारत वर्ष का अपना उस धार्मिक परम्परा एवं तत्संबंधी संस्कृति का सम्बन्ध एक सर्वप्राचीन धर्म है । अत्यन्त प्राचीन काल से ही बराबर मिलता चला पाता है।
अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं, युक्तः का येन चेदपि ॥१॥
'वादीभसिंह
दूसरे दोष की तरह जो अपने दोष को भी देखता है उसके बराबर कौन है ? ऐसा मनुष्य यद्यपि शरीरसहित है फिर भी कर्मयुक्त-सिद्धात्मा है।
ज्ञानमेव फलं ज्ञाने - ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यं यदन्यदपि मृग्यते ॥१॥
'गुगभद्राचार्य'
यह निश्चित है कि ज्ञान का प्रशंसनीय फल कभी नष्ट नहीं होने वाला ज्ञान ही है । यह तो मोह का माहात्म्य ही समझिए कि अनश्वर ज्ञान के अतिरिक्त ज्ञान का अन्य कोई फल ढूढने का प्रयत्न किया जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org